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प्रमोदसागर और इनके सहोदर भ्राता का नाम क्षीरसागर रखा गया। गुरु के साथ इन्होंने विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रायें की। वि०सं० १८०८ में अहमदाबाद में इन्होंने अपने एक शिष्य को आचार्य पद देकर पुण्यसागरसूरि नाम प्रदान किया जो वि०सं० १८११ में इनके निधन के पश्चात् गच्छनायक बने। १७
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सत्यसौभाग्य के पट्टधर इन्द्रसौभाग्य की परम्परा में हुए शांतसौभाग्य ने वि०सं० १७८७ मे गुजराती भाषा में अगडदत्तऋषिनीचौपाई " की रचना की। श्री देसाई ने शांतसौभाग्य की गुरु-परम्परा दी है १९, जो इस प्रकार है।
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राजसागरसूरि
वृद्धिसागरसूरि
लक्ष्मीसागरसूरि
1
कल्याणसागरसूरि
1
० सत्यसौभाग्य
उपा०
1
उपा० इन्द्रसौभाग्य
उपा०
० वीरसौभाग्य
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प्रेमसौभाग्य
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शांतसौभाग्य (वि०सं० १७८७ में पाटण में अगडदत्तऋषिनीचौपाई
के रचनाकार)
में
शामलापार्श्वनाथ जिनालय, डभोई में संरक्षित आदिनाथ की धातु की प्रतिमा पर वि०सं० ० १८२८ फाल्गुन वदि २ शुक्रवार का एक लेख उत्कीर्ण१९अ है जिसमें पुण्यसागरसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में नाम मिलता है। राधनपुर स्थित शांतिनाथ जिनालय के भोयरे एक मोटे पाषाणखण्ड पर ४१ पंक्तियों का एक शिलालेख उत्कीर्ण है। इस प्रशस्तिलेख की प्रथम १५ पंक्तियों में सागरगच्छ के प्रवर्तक राजसागरसूरि से लेकर पुण्यसागरसूरि तक के पट्टधरों की नामावली दी गयी है साथ ही वि०सं० १८३८ में पुण्यसागरसूरि द्वारा यहां जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करने की बात कही गयी है। प्रशस्ति की अगली पंक्तियों में जिनालय के निर्माता श्रावक परिवार का परिचय है। प्रशस्ति के अन्त में प्रशस्ति के रचनाकार अमृतसागर ने अपना परिचय देते हुए स्वयं को पुण्यसागरसूरि का शिष्य बतलाया है।
पुण्यसागरसूरि के एक शिष्य ज्ञानसागर हुए, जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके शिष्य उद्योतसागर द्वारा रचित कुछ कृतियां मिलती हैं२२, जो इस प्रकार हैं :
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