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२८५ इक्कीसप्रकारीपूजा (रचनाकाल वि०सं० १८२३) अष्टप्रकारीपूजा (रचनाकाल वि०सं० १८२३) आराधना बत्तीसद्वारनो रास वीरचरित्रबेलि सम्यकत्त्वबारव्रतविवरण पुण्यसागरसूरि के पश्चात् उनके पट्टधर उदयसागर ने गच्छ का नायकत्त्व ग्रहण किया।
शामला पार्श्वनाथ जिनालय, डभाई में संरक्षित चन्द्रप्रभ की धातु की एक प्रतिमा पर वि०सं० १८४५ फाल्गुन सुदि ३ का लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में उदयसागरसूरि का नाम मिलता है। बुद्धिसागरसूरि ३ ने इस लेख को वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
संवत् १८४५ फागुण सुद ३...............चन्द्रप्रभबिंबं श्री उदयसागरसूरिभिः।।
यद्यपि इस लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक आचार्य के गच्छ का निर्देश नहीं है, तथापि इस समय केवल सागरशाखा में ही उक्त नामधारी आचार्य हुए हैं अत: समसामयिकता की दृष्टि से उक्त प्रतिमालेख मे उल्लिखित उदयसागरसूरि को सागरशाखा के उदयसागरसूरि से अभिन्न माना जा सकता है।
उदयसागरसूरि के समय में वि०सं० १८४२ में विवाहपटलबालावबोध और वि०सं० १८६३ में उपदेशमालाबालावबोध की प्रतिलिपि की गयी।२४
__उदयसागर के पश्चात् आनन्दसागर ने इस शाखा का नायकत्व ग्रहण किया। इनके बारे में हमें सागरशाखा की पट्टावली तथा कुछ प्रशस्तियों में नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी नहीं मिलती।
आनन्दसागरसूरि के पट्टधर शांतिसागरसूरि हुए। इनके भी प्रारम्भिक जीवन आदि के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती तथापि कुछ रचनाओं की प्रशस्तियों में इनका नाम मिलता है। तपागच्छीय मुनि क्षेमवर्धन द्वारा वि०सं० १८७०/ई०स० १८१४ में रचित शांतिदास अने वखतचंदसेठनो रास के अन्त में रचनाकार ने सागरशाखा के मुनिजनों की नामावली दी है जिसमें राजसागरसूरि से लेकर शांतिसागरसूरि तक का नाम मिलता है।२५
क्षेमवर्धन द्वारा ही वि०सं० १८७९/ई०स० १८२३ में रचित श्रीपालरास के अन्त में भी सागरगच्छ के नायक के रूप में इनका नाम मिलता है२६ -
सागरगच्छ सोभाकर सुंदर, शांतिसागर सूरि रायो,
तपागच्छ-विजयसंविग्न शाखा के प्रसिद्ध रचनाकार वीरविजय द्वारा वि०सं० १९०३ में रचित हठीसिंहनीसंघनु वर्णन अथवा हठीसिंहनी अंजनशलाकाना ढालिया में भी आचार्य शांतिसागरसूरि का प्रसंगवश नामोल्लेख हुआ है।
___ वि०सं० १८८९ से लेकर वि०सं० १९२१ तक के विभिन्न अभिलेखीय साक्ष्यों में शांतिसागरसूरि का नाम मिलता है। इनका विवरण निम्नानुसार है :
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