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मुनिसुव्रत की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्रतिष्ठास्थान-मुनिसुव्रत जिनालय, भरुच
बुद्धिसागरसूरि, संपा०-जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ३२९. ३. सं० १५८४ वर्षे माघ सुदि ९ गुरौ प्राग्वाट्ज्ञातीय दो० आशधर भा० माणिकि पुत्र हरषा भार्या हरषादे पुत्री रूपाई आत्मश्रेयसे श्रीचन्द्रप्रभस्वामिबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तपागच्छे श्रीसौभाग्यहरष (हर्ष) सूरिभिः।।
चन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्रतिष्ठास्थान - बालावसही, शत्रुजय, पालीताना
मुनि कांतिसागर, पूर्वोक्त, लेखांक २८०. ४. सं० १५९५ वर्षे मा० व० ( ) दलुलिवास्तव्य हुंबडज्ञाति मुहडासीया श्रे० वीरपाल भा० मानूं पुत्र श्रे० नीसल भा० जीविणी पु० श्रे० लहुआकेन भा० ललतादे वृद्धभ्रातृ दो० आसा चांपा पोपट लखमादिकुटुम्बयुतेन श्रेयोर्थं श्रीश्रेयांसनाथबिंबं कारितं प्रति० तपा० श्रीहेमविमलसूरि तत्पट्टे श्रीसौभाग्यहर्षसूरिभिः।।
श्रेयांसनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख प्रतिष्ठास्थान - माणिकसागरजी का मंदिर, कोटा महो० विनयसागर, संपा०, प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ९९१.
पूर्वप्रदर्शित पट्टावली के अनुसार वि०सं० १५९७ में सौभाग्यहर्षसूरि की मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्य और पट्टधर सोमविमलसूरि ने इस शाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। लगभग ४० वर्षों तक इस शाखा का नेतृत्त्व करने के उपरान्त वि०सं० १६३६ में इनकी मृत्यु हुई। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित दो जिनप्रतिमायें मिली हैं जो वि०सं० १६०३ और वि०सं० १६२२ की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है :
प्रथम प्रतिमा पार्श्वनाथ की है जो आज आदिनाथ जिनालय, वेजलपुरा, भरुच में संरक्षित है। बुद्धिसागरसूरि ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
स्वस्तिश्री संवत् १६०३ वर्षे वैशाख दि ५ दिने आमथडावास्तव्यमं० नरसिंगभार्यानामलदेपुत्रभाणाकेन निजश्रेयसे श्री पार्श्वनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तपागच्छे श्रीसोमविमलसूरिभिः।।
द्वितीय प्रतिमा जो इन्होंने हीरविजयसूरि के साथ प्रतिष्ठापित की थी, आज अमीझरा पार्श्वनाथ जिनालय, जीरारवाड़ो, खंभात में है। बुद्धिसागरसूरि ने इस पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख की भी वाचना दी है जो निम्नानुसार है :
संवत् १६२२ वर्षे माघ वदि २ बुधे श्रीश्रीमालज्ञातीयवृद्धशाखायां सा० भावडभार्यावा० सबूसुतदोसीज (?) नपालभार्या वा० जीवादेसुतदो० जयवंतेन श्रीश्रीचतुर्विंशतिपट्ट: कारापितः श्रीतपागच्छे श्री ५ सोमविमलसूरिप्रतिष्ठितं श्री ५ श्रीहीरविजयसूरिभि: प्रतिष्ठितं श्रीस्तम्भतीर्थवास्तव्यः।।
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