Book Title: Tapagaccha ka Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 297
________________ २७७ पार्श्वनाथ जिनालय, डूंगरपुर, ईडर से प्राप्त शिलालेख बुद्धिसागरसूरि, संपा०-जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, लेखांक १४६२. विमलसोमसूरि के पट्टधर विशालसोमसूरि हए। इनके द्वारा धोलका में धात् की पंचतीर्थी पट्ट की स्थापना की गयी।१९ इन्हीं के काल में वि०सं० १७०३ में संघसोम ने चौबीसी और राजरत्न ने वि०सं० १७०५ मे गजसिंहकुमाररास'१ की रचना की। विशालसोमसूरि के पट्टधर उदयविमलसोमसूरि हए। इनके पश्चात् क्रमश: गजसोम, मुनीन्द्रसोम, राजसोम और आनन्दसोम पट्टधर बने। इनके बारे में उक्त पट्टावली को छोड़कर अन्यत्र कोई जानकारी नहीं मिलती।२ आनन्दसोमसूरि के काल में वि०सं० १८७८ में उत्तमविजय ने धनपालशीलवतीरास की रचना की। आनन्दसोम के एक शिष्य भानु उदयसोम हुए। इन्होंने वि० सं० १८८९ में श्रीपालरास२४ की रचना की। इनके द्वारा नेमिनाथरसबेलि की वि०सं० १८९४ में की गयी प्रतिलिपि२५ भी प्राप्त हुई है। उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर लघुपौशालिकशाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की एक विस्तृत तालिका बनती है। दृष्टव्य तालिका क्रमांक ३. जैसा कि ऊपर इस पट्टावली में हम देख चुके हैं आनन्दसोम के शिष्य देवेन्द्रविमलसोम और मुनीन्द्रसोम से यह शाखा भी दो भागों में विभाजित हो गयी। देवेन्द्रविमलसोम के पश्चात् क्रमश: तत्त्वविमलसोम, पुण्यविमलसाम, कस्तूरसोम, रत्नसोम और अंतिम पट्टधर रायचन्दजी हुए जिनका वि०सं० १८६८ में निधन हुआ। इनके साथ ही तपागच्छ की इस शाखा की परम्परा भी समाप्त हो गयी। लघुपौशालिक शाखा की दूसरी उपशाखा जो मुनीन्द्रसोम से प्रारम्भ हुई थी, उसमें उनके पश्चात् केसरसोम और तत्पश्चात् सोमजी हुए। सोमजी के पश्चात् ही उनकी परम्परा समाप्त हो गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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