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संदर्भ
२. 3.
धर्मसागरीय "तपागच्छ पट्टावली'', पट्टावली समुच्चय, भाग १, पृष्ठ ६६-६७. मुनि चतुरविजय, जैनस्तोत्रसंदोह, भाग २, प्रास्तावना, पृष्ठ A.P. Shah, Ed. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss: Muni Shree Punya Vijaya Jis Collection, Part I, L.D. Seris No. 2,Ahmedabad. 1962 A.D., P. 88. मुनि कांतिसागर, शत्रुजयवैभव, पृष्ठ १८९. अमृतलाल मगनलालशाह, संपा०- श्रीप्रशस्तिसंग्रह, भाग २, पृष्ठ २०, प्रशस्ति
क्रमांक ८५.
५. बुद्धिसागरसूरि, संपा० - जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१,लेखांक १२१५. ६. मुनि जयन्तविजय, संपा०- अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक २५५. ___ विनयसागर, संपा०- प्रतिष्ठालेखसंग्रह, जिनमणिमाला, पुष्प ४, कोटा १९५३
ई०, लेखांक ५६८. मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग १, नवीनसंस्करण, संपा० - जयन्त कोठारी, अहमदाबाद १९८६ ई०, पृष्ठ १०४-१०५. वही, भाग १, पृष्ठ ९१-९३. मुनि चतुरविजयजी ने संघकलश के गुरु उदयनंदि को संवेगदेवगणि का शिष्य
और रत्नशेखरसूरि का प्रशिष्य कहा है। उनके इस कथन का आधार क्या है, यह ज्ञात नहीं होता।
जैनस्तोत्रसंदोह, भाग २, प्रस्तावना, पृष्ठ ९८. १०-११. वही, भाग २, प्रस्तावना, पृष्ठ ९९-१००.
१२. सोमसौभाग्यकाव्य, सर्ग १०, श्लोक ३२-४३. १३. गुरुगुणरत्नाकरकाव्य, पृष्ठ १९-२०, मूलग्रन्थ उपलब्ध न होने से यह उद्धरण
जैनस्तोत्रसंदोह, भाग २, प्रस्तावना, पृष्ठ ९९ के आधार पर दिया गया है। १४-१५. वही, पृष्ठ १००.
देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, मुम्बई १९३२ ई०, पृष्ठ ५१५, कंडिका
७५२. १७. रसिकलाल हीरालाल कापड़िया, जैनसंस्कृतसाहित्यनो इतिहास, भाग २, खंड
१, बड़ोदरा १९६८ ई०, पृष्ठ १७२, २२७, २३१ आदि. १८. उपदेशतरंगिणी की प्रशस्ति १९. आचारांगसूत्र पर तत्त्वावगमा नामक अवचूर्णि; ज्ञाताधर्मकथा पर मुग्धावबोध
नामक लघुवृत्ति आदि, जैनसाहित्यनो.........., पृष्ठ ५२०, कंडिक ..
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