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वृद्धतपागच्छ/ रत्नाकरगच्छ
भृगुकच्छीयशाखा
जैसा कि पिछले पृष्ठों में कहा जा चुका है जयतिलकसूरि के एक शिष्य रत्नसागर से बृहद्तपागच्छ की भृगुकच्छीयशाखा अस्तित्त्व में आयी। शांतिनाथ जिनालय, पादरा में प्रतिष्ठापित वासुपूज्य की चौबीसी प्रतिमा पर वि०सं० १४७८ का एक लेख उत्कीर्ण है। बुद्धिसागरसूरि ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
सं० १४७८ वर्षे पौष सुदि १५ बुधे मोढज्ञातीय ठ० बहुरा भा० मनू पु०ठ० धर्मा भार्या राणी सु००० वरसिंहेन भार्या वयडू भ्रातृ नरसिंह रयणायर सुत समधर घोघर सहसां हांसा नागराज समस्तकुटुम्बसहितेन निजश्रेयोऽर्थं श्रीवासुपूज्यादि चतुर्विंशतिजिनपट्टक: कारितः प्रतिष्ठितस्तपाश्रीरत्नसागरसूरिक्रमेण श्रीजिनतिलकसूरिपट्टे श्रीज्ञानकलशसूरिभिः शुभं भवतु।
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ९
जैसा कि उक्त लेख से स्पष्ट है, इसमें प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में ज्ञानकलशसूरि का नाम मिलता है, साथ ही उनके गुरु जिनतिलक और प्रगुरु रत्नसागर का भी उल्लेख है :
रत्नसागरसूरि
जिनतिलकसूरि
ज्ञानकलशसूरि (वि०सं० १४७८/ई०स० १४२२ में
वासुपूज्य की धातु की चौबीसी प्रतिमा के प्रतिष्ठापक) ज्ञानकलशसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित वि०सं० १४८८-८९ की जिनप्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। बुद्धिसागरसूरि ने इनकी वाचना दी है, जो निम्नानुसार है :
संवत् १४८८ वर्षे वैशाख सुदि १३ रवौ श्रीबद्धगोत्रे श्रीहंबडज्ञातीयव० नरसिंहभार्यावा० जाम् तया (श्रे० देवडभार्यादेवलदे?) पुत्रठ० हीराठ० वईराठ० पेथाकेन श्रीआदिनाथ (बिंबं) कारापितं स्वश्रेयसे प्रतिष्ठितं श्रीवृद्धतपापक्षे भट्टा० श्रीज्ञानकलस(श)सूरिभि: शुभं भवतु।।
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ७०३. प्रतिष्ठास्थान - महावीर जिनालय, गीपटी, खंभात ।
संवत् १४८९ वर्षे वैशाख सुदि ३ बुधे श्रीहंबडज्ञातीयमहं० सूरा भार्या वा० सोमलदेपुत्रमहं० वणसीपत्नीवा० शाणीपु० सं० वीरधवलभार्यावाईचापूयुतेन स्वकुटुंबश्रेयसे श्रीअजितनाथबिंबं कारापितं प्रतिष्ठितं श्रीज्ञानकलस(श)सूरिभिः शुभं भवतु।।
वही, भाग २, लेखांक ३२३. प्रतिष्ठास्थान - मुनिसुव्रत जिनालय, भरुच
संवत १४८९ वर्षे वैशाख सुदि ३ बुधे श्रीहंबडज्ञातीयठ० राजसीहभार्यावा० राजलदे तयोः पुत्रठ० माजाप्रियावा० नान्हीसुतठ० हेमराजभार्या तेजलदेयुतेन श्रीधर्मनाथबिंबं स्वश्रेयसे
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