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चूंकि उक्त प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार ने अपनी लम्बी गुरु-परम्परा दी है, अत: इस शाखा के इतिहास के अध्ययन में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है।
अमररत्नसूरि के दूसरे पट्टधर देवरत्नसूरि भी इन्हीं के गुरुभ्राता थे। इनके शिष्य जयरत्न द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनकी परम्परा में हुए कनकसुन्दर गणि द्वारा वि०सं० १६६२-१७०३ के मध्य रचित विभिन्न रचनायें मिलती हैं३६, जो इस प्रकार
हैं..
१- कर्पूरमंजरीरास (वि० सं० १६६२) २- गुणधर्मकनकवतीप्रबन्ध
सगालसाहरास (वि० सं० १६६७) देवदत्तरास रूपसेनरास (वि० सं० १६७३)
जिनपालितसज्झाय ७- दशवकालिकसूत्रबालावबोध ८- ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्तवन (वि० सं० १७०३) अपनी कृतियों की प्रशस्तियाँ में रचनाकार द्वारा दी गयी गुरु-परम्परा निम्नानुसार है:
अमररत्नसूरि
देवरत्नसूरि
जयरत्नसूरि
विद्यारत्न
कनकसुन्दरगणि (वि० सं० १६६२-१७०३ के मध्य विभिन्न कृतियों
के रचनाकार)
जयरत्न के दूसरे शिष्य भुवनकीर्ति हुए जिनके पट्टधर रत्नकीर्ति५८ ने वि०सं० १७२७ में स्त्रीचरित्ररास की प्रतिलिपि की। रत्नकीर्ति के शिष्य सुमतिविजय द्वारा वि०सं० १७४९ में रचित रत्नकीर्तिसूरिचउप३३९ नामक कृति प्राप्त होती है। सुमतिविजय द्वारा रचित रात्रिभोजनरास नामक एक अन्य कृति भी प्राप्त होती है।
रत्नकीर्तिसूरिचउपइ में रचनाकार ने अपने अन्य गुरु भ्राताओं--रामविजय, हेमविजय और गुणविजय का भी नाम दिया है। वि०सं० १७३४ में रत्नकीर्तिसूरि के निधन के पश्चात् गुणविजय गुणसागरसूरि के नाम से उनके पट्टधर बने। इनके द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है, और न ही किसी प्रतिमालेख में नाम मिलता है।
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