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__ सं० १५४८ वर्षे माघ वदि १३ शुक्रवारे सुषालयपुरे श्रीवृद्धतपापक्षे प्रभुभट्टारककलिकाकालश्रीगौतमावतारषट्त्रिंशतसूरि (? गुण) विराजमानगच्छाधीशश्रीपूज्य-श्री ५ जिनरत्नसूरिगुरु-तत्पट्टे श्रीजिनसाधुसूरि-तशिष्येणालेखि।
जिनरत्नसूरि
जिनसाधुसूरि (वि०सं० १५५०/ई०स० १४९४ में भरतबाहुबलिरास
। तथा अन्य कृतियों के कर्ता) जिनसाधुसूरिशिष्य (वि०सं० १५४८/ई०स० १४९२ में श्राद्धप्रति
क्रमणस्तवक के प्रतिलिपिकार)
जिनरत्नसूरि के एक अज्ञात नाम शिष्य द्वारा वि०सं० १५३२ में रचित मंगलकलशरास नामक कृति प्राप्त होती है।
वि० सं० १५४८ में लिखी गयी उत्तराध्ययनसूत्र' की दाता प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि तपागच्छ के जिनरत्नसूरि के शिष्य पुण्यकीर्तिगणि के शिष्य साधुसुन्दरगणि के पठनार्थ एक श्रावक परिवार द्वारा उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि करायी गयी।
जिनरत्नसूरि
पुण्यकीर्तिगणि
साधुसुन्दरगणि (वि०सं० १५४८ में इनके पठनार्थ उत्तराध्ययनसूत्र
की प्रतिलिपि की गयी) चूंकि उक्त प्रशस्ति में जिनरत्नसूरि और उनके शिष्यों को तपागच्छ से सम्बद्ध बताया गया है किन्तु तपागच्छ की वृद्धशाखा को छोड़कर अन्य किसी शाखा में उक्त नामधारी मुनिजन उक्त काल में नहीं हुए हैं अत: इस में उल्लिखित जिनरत्नसूरि को वृद्धतपागच्छीय जिनरत्नसूरि से अभिन्न मानने में कोई बाधा नहीं है।
वृद्धतपागच्छीय सोमशीलगणि द्वारा वि०सं० १५९० में लिखी गयी पर्यन्ताराधना की एक प्रति मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह में है। इसकी प्रशस्ति के अन्तर्गत प्रतिलिपिकार ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
जयशेखरसूरि
जिनरत्नसूरि
पं० पुण्यकीर्तिगणि
पं० साधुसुन्दरगणि
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