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आनन्दविमलसूरि के पट्टधर विजयदानसूरि हुए। पट्टावलियों के अनुसार वि० सं० १५५३ में इनका जन्म हुआ, वि०सं० १५६२ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की, वि०सं० १५८७ में सूरि पद प्राप्त किया और वि०सं० १६२२ में इनकी मृत्यु हुई।६९ इन्होंने अनेक स्थानों पर विहार लिया। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों में उपलब्ध सूचना के अनुसार इन्होंने गुजरात के सुल्तान मुहम्मद के मंत्री से शत्रुजयतीर्थ पर लगने वाले कर को छह मास के लिये माफ कराया।६२ इन्होंने संघ के साथ शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रायें की और वहाँ के प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया। इन्हीं के समय उपाध्याय धर्मसागर जी ने सभी गच्छों की अशिष्टोचित आलोचना करके असन्तोष का वातावरण उत्पन्न कर दिया जिससे श्वेताम्बर समाज में परस्पर तीव्र वैमनस्य होने लगा, अत: विजयदानसूरि ने उपाध्याय जी को गच्छ से निष्कासित कर दिया और उनके तथाकथितग्रन्थ कुमतिकुद्दाल को जलशरण कराया। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमायें भी मिली हैं जो वि०सं० १५९२ से लेकर वि०सं० १६२० तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:
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