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१७८ आचार्य विजयसेनसूरि के समय में ही हीरविजयसूरि की विशाल शिष्य सन्तति में परस्पर विचार भेद बढ़ते-बढ़ते उग्र हो गया और वि०सं० १६७२ में उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके दो पट्टधर हो गये- विजयदेवसूरि और विजयतिलकसूरि। विजयदेवसूरि से तपागच्छ की मूल परम्परा आगे बढ़ी तथा विजयतिलकसूरि से तपागच्छ की एक नूतनशाखा-विजयाणंदसूरिशाखा अपरनाम आनन्दसूरिशाखा अस्तित्व में आयी।
तपागच्छ के प्रभावक महापुरुषों में आचार्य हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरि के पश्चात् विजयदेवसूरि का नाम आता है। खरतरगच्छीय विद्वान्मुनि श्रीवल्लभ उपाध्याय द्वारा रचित विजयदेवमहात्म्य (रचनाकाल वि०सं० १७०९ से पूर्व); महोपाध्याय मेघविजय द्वारा इस पर रचित विवरण (रचनाकाल वि०सं० १७०९ से पूर्व) और मेघविजय द्वारा ही वि०सं० १७२७ में रचित देवानन्दमहाकाव्य में विजयदेवसूरि का विस्तृत जीवनचरित्र वर्णित है। इसके अतिरिक्त मेघविजयगणि द्वारा ही रचित श्रीतपगच्छपट्टावलीसूत्रवृत्यनुसंधान तथा तपागच्छ की उत्तरकालीन अन्य पट्टावलियों से भी इनके बारे में जानकारी प्राप्त होती है। प्राप्त विवरणानुसार वि०सं० १६३४ में ईडर नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। वि०सं० १६४३ में विजयसेनसूरि से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० १६५६ में आचार्य पद प्राप्त किया। गुरु के निधन के पश्चात् ये उनके पट्टधर बने।
इनके समय में हीरविजयसूरि के विशाल शिष्य-प्रशिष्य परिवार में परस्पर जो वैमनस्य उत्पन्न हो गया था, उसकी चर्चा जहाँगीर के दरबार में भी पहुँच गयी। उसने विजयदेवसूरि को उत्सुकतावश, जब वह मांडू में था, बुलवाया। सूरिजी उस समय खंभात में थे। बादशाह का
आमंत्रण पाकर उन्होंने विहार किया और मांडू पहुँचकर आश्विन सुदि १३ को बादशाह से मिले।९३ वहाँ इनका समुचित सम्मान हुआ। सूरिजी की विद्वत्ता, तेजस्विता और क्रियानिष्ठा से वह बहुत प्रभावित हुआ और इन्हें जहांगीरी महातपा की उपाधि प्रदान की।'' तपागच्छीय मुनिजनों द्वारा इस काल में लोकभाषाओं में रचित विशालसाहित्य अपने आप में एक स्वतंत्र अध्ययन का विषय है।
विज्ञप्तिपत्रों का इस युग में विशेष विकास हुआ। विजयदेवसूरि और उनके प्रथम पट्टधर विजयसिंहसूरि (जिनका वि०सं० १७०९ में गुरु की विद्यमानता में ही निधन हो गया था।) को विद्वान् शिष्यों द्वारा अनेक विज्ञप्तिपत्र प्रेषित किये गये।९५ इन विज्ञप्तिपत्रों में प्रवास यात्राओं में आगत स्थान, गिरि, नगर, ग्राम आदि का सुन्दर और प्रामाणिक वर्णन पाया जाता है। भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से इन विज्ञप्तिपत्रों का महत्त्व निर्विवाद है। आचार्य विजयदेवसूरि का वि०सं० १७१३ में ऊना नामक स्थान पर, जहां हीरविजयसूरि का निधन हुआ था, देहान्त हुआ।१६
विजयदेवसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित सलेख जिन प्रतिमाओं पर वि०सं० १६५७ से १७१३ तक उत्कीर्ण लेख मिलते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
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