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उक्त तालिका से ज्ञात होता है कि इनके जन्म और दीक्षा की तिथियों के बारे में पट्टावलियों में जो तिथियाँ दी गयी हैं, वे तो समान हैं किन्तु इनके आचार्य पदारोहण और मृत्यु के सम्बन्ध में दी गयी तिथियों में एक-एक वर्ष का अन्तर है।
गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, अजमेर में संरक्षित भगवान् पार्श्वनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा पर वि०सं० १६७९ का एक लेख उत्कीर्ण है। महोपाध्याय विनयसागर ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
संवत् १६७९ वर्षे आषाढ़ सुदि १३ गुरौ मेड़तानगर वास्तव्य ...... भं० उ० । सदे पुत्र को० दीपनेकेन श्री पार्श्व बिं० का०प्र० तपागच्छे भ० श्रीविजयदेवसूरिभिः स्वपदस्थापितश्रीविजयसिंहसूरिपरिवृतैः ।
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ११६२.
उक्त प्रतिमा लेख के पाठ को यदि हम सही मानें तो यह स्वीकार करना होगा कि वि०सं० १६७९ में विजयसिंहसूरि अपने गुरु द्वारा आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित हो चुके थे और ऐसी स्थिति में पट्टावलियों में इनके आचार्य पदारोहण की दी गयी तिथियों (वि० सं० १६८१ - १६८२) की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में शंका उत्पन्न हो जाती है।
चूंकि वि०सं० १७०९ में इनका आकस्मिक रूप से निधन हो गया था और तपागच्छनायक विजयदेवसूरि ने वि०सं० १७१० में विजयप्रभसूरि को आचार्य पद देकर अपना पट्टधर बनाया जिन्होंने वि०सं० १७१३ में गुरु की मृत्यु के बाद तपागच्छ का नायकत्व ग्रहण किया और जिनसे गच्छ की परम्परा आगे बढ़ी। इस प्रकार स्वाभाविक रूप से विजयसिंह सूरि के बारे में लोगों की स्मृति शनैः शनैः क्षीण होने लगी और संभवतः यही कारण है उनकी मृत्यु के २५-३० वर्ष पश्चात् ही रची गयी पट्टावलियों में उनके आचार्य पदारोहण और मृत्यु के सम्बन्ध में अलग-अलग तिथियाँ प्राप्त होती हैं।
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विजयसिंहसूरि द्वारा अपने गुरु विजयदेवसूरि को वि०सं० १६९९ में प्रेषित एक विज्ञप्तिपत्र भी प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार विजयसिंहसूरि के शिष्यों - विजयवर्धन ९ द्वारा वि०सं० १७०३ और वि०सं० १७०४ में; उदयविजय ० द्वारा वि०सं० १६९९ तथा अमरचन्द्र१०१ कमलविजय १०२ और लावण्यविजय १०३ द्वारा वि० सं० १७०९ में प्रेषित विज्ञप्तिपत्र भी प्राप्त हुए हैं।
विजयसिंहसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं जो वि०सं० १६७९ से वि०सं० १७०५ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है
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