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१४० आचार्य हेमविमलसूरि के समय ही तपागच्छ की दो उपशाखायें-कमलकलशशाखा और कुतुबपुराशाखा अस्तित्त्व में आयीं।“ मुनिश्री चतुरविजयजी ने विभिन्न ग्रन्थप्रशस्तियों, पुस्तकप्रशस्तिओं आदि के आधार पर इनके आनन्दविमलसूरि, दयावर्धनगणि, कुलचरणगणि, साधुविजय, अनन्तहंस, हर्षकुल, सौभाग्यहर्ष आदि २० शिष्यों का उल्लेख किया है।५६ लघुपौशालिकपट्टावली के अनुसार हेमविमलसूरि ने पहले आनन्दविमलसूरि को अपना पट्टधर नियुक्त किया था, परन्तु बाद में उन्होंने सौभाग्यहर्ष को अपना पट्टधर नियुक्त किया। वि० सं० १५८३ में इनका देहान्त हुआ।५८ इनके प्रथम पट्टधर आनन्दविमल से तपागच्छ की मूलपरम्परा आगे चली और द्वितीय पट्टधर सौभाग्यहर्ष की शिष्य-परम्परा लघुपौशालिक या सोमशाखा के नाम से विख्यात हुई।
आनन्दविमलसूरि का जन्म वि०सं० १५४७ में हुआ था। वि० सं० १५५२ (?) में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० १५७० में आचार्य पद प्राप्त किया। इस समय तक मुनिजनों में शिथिलाचार व्याप्त हो चुका था, अत: इन्होंने वि०सं० १५८२ में क्रियोद्धार किया। तपागच्छीय आचार्य सोमप्रभसूरि ने मरुभूमि में जलदौर्लभ्य के कारण अपने गच्छ के मुनिजनों का विहार निषिद्ध किया था, उसे आनन्दविमलसूरि ने पुन: चालू किया और अपने शिष्यों का वहाँ विहार कराया ताकि तपागच्छ का प्रभाव वहाँ बना रहे। वि०सं० १५९६ में इनका देहान्त हुआ।६० इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है :
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