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और भोजप्रबन्ध की प्रशस्तियों में रत्नमंदिर ने अपनी गुरु-परम्परा दी है,
उपदेशतरंगिणी जो इस प्रकार है :
रत्नशेखरसूरि
नंदिरत्न
रत्नमंदिरगणि | उपदेशतरंगिणी और भोजप्रबन्ध (वि० सं० १५१७)
आदि कृतियों के कर्ता। रत्नमंदिरगणि की शिष्यपरम्परा आगे नहीं चली जबकि रत्नमंडन के एक शिष्य आगममंडन हुए जिनके प्रशिध्य और हर्षकल्लोल के शिष्य लक्ष्मीकल्लोल द्वारा रचित कई कृतियाँ मिलती है। रत्नमंडन के दूसरे शिष्य सोमजय हुए जिनके शिष्य जिनसोम और प्रशिष्य इन्द्रनंदि से आगे चलकर तपागच्छ की कुतुबपुराशाखा अस्तित्व में आयी।
सोमदेवसूरि
रत्नमंडन (सुकृतसागर के कर्ता)
आगममंडम
सोमजय
हर्षकल्लोल
जिनसोम
लक्ष्मीकल्लोल
इंद्रनंदि (तपागच्छ-कुतुबपुरा शाखा के आदिपुरुष) (प्रसिद्ध रचनाकार)
रत्नशेखरसूरि के पश्चात् लक्ष्मीसागरसूरि उनके पट्टधर बने। इनके बारे में सोमदेवसूरि के प्रशिष्य और चारित्रहंसगणि शिष्य सोमचारित्रगणि द्वारा वि०स० १५४६/ई०स० १४८५ में रचित गुरुगुणरत्नाकरकाव्य१ से विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इसके अनुसार वि०सं० १४६४ में इनका जन्म हुआ, वि०सं० १४७० में मुनिसुन्दरसूरि से दीक्षा ली, वि०सं० १५०१ में उन्हीं से मुण्डस्थल में वाचक पद प्राप्त हुआ। वि०सं० १५०८ में इन्हें सूरि पद मिला और १५१७ वि०सं० में गच्छनायक बने। इन्होंने स्तम्भतीर्थ में सोमदेवसूरि और उनके शिष्य रत्नमंडन के मध्य मतभेद दूर कराया। शिष्यपरिवार
विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से लक्ष्मीसागरसूरि के शिष्यों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। मुनि चतुरविजयजी ने इनके विभिन्न शिष्यों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है :
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