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शक्ति देखकर तप करो, आषिक भक्ति देखकर दान करे।
प्रस्तावना ॐ ह्रीं श्रीं ऐं अर्ह सर्वदोष प्रणाशन्यैः नमः । इस क्लेशपूर्ण कषाय वृत्तियों से भरपूर दुःखागार अपार संसार में चाहे कोई भी प्रास्तिक अथवा नास्तिक विचारधारा का व्यक्ति क्यों न हो, वह नाना प्रकार के रोग-शोक चिन्ताओं आदि से ग्रसित देखने में आता है । उनकी आत्मधातिनी व्याधियों के प्रतिकार के लिए अनेक प्रकार के उपायों की खोज में मानव लगा हुआ है, पर फिर भी विश्व में दिन प्रतिदिन मानव आधि, व्याधि तथा उपाधियों से वृद्धि पाता जा रहा है। बाह्य और अभ्यन्तर व्याधियों और उपाधियों से सारा विश्व आक्रांत है । अात्मघातिनी बाह्य शारीरिक व्याधियों , के प्रतिकार के लिये आयुर्वेदिक कला-कौशल वैद्य, युनानी हिकमत में निपुण हकीम, विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त एलोपैथिक डाक्टर, होम्योपेथी, वायोकेमिकपेथी, नेचरोपेथी (प्राकृतिक चिकित्सा) क्रमोपेथी इत्यादि अनेक पद्धतियों के चिकित्सक एवं तांत्रिक, मांत्रिक, यांत्रिक आदि लोग अपनी चिकित्सा से संसार के सब प्राणियों के रोग शोकादि का निवारण करने के लिये कटिबद्ध हैं । परन्तु फिर भी मानव को रोग, क्लेशादि मुक्ति प्राप्त नहीं होती। दिन प्रतिदिन मानव जीवन परेशानियों में उलझा जा रहा है। जरा विचार कर देखा जाये तो व्याधि क्या है पहले इसे समझना आवश्यक है, इसके अनन्तर उसके प्रतिकार के उपाय कौन से हैं ऐसा निर्णय करना भी अनिवार्य है इसके लिये जैन धर्मानुयायी वाग्भट्ट ने अपने अष्टांगहृदय नामक चिकित्सा ग्रन्थमें कहा है कि -
"रोगादौ परिक्षेत तदन्तरमौषधम् ।
ततः कर्म भिषक् पश्चात् ज्ञानपूर्वं समाचरेत् ॥ १॥" अर्थात्-वैद्य पहले रोग की परीक्षा करे, तदनन्तर औषधि का निर्णय करे, र फिर चिकित्सा कर्म ज्ञानपूर्वक काम में लावे ।
जिस प्रकार बाह्य शारीरिक व्याधि के लिये निदान खोजने पर प्रतिकार संभव है वैसे ही अध्यात्म-पक्ष में बाह्य तथा अभ्यंतर व्याधियों का निदान भी सोचा जाना परमावश्यक है। क्योंकि मात्र शारीरिक चिकित्सा से आत्म
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