________________
जब मां की कोख से जन्म लिया, तो हम मात्र एक फुट थे। उससे पहले नौ इंच के थे और उससे भी गहरे जाएं तो हम पाएंगे कि हम एक बूंद थे, एक अणु थे। यह शरीर अणु का ही फैलाव है। पर अणु से पहले हम क्या थे? अणु से पहले हम वह चेतना थे, जिसके संस्पर्श से अणु इतना विराट बना। चेतना से ही अणु को करंट मिलता है। यह बूंद इतने बड़े आकार को लेकर आगे बढ़ी। इस छः फुट के शरीर का सार एक अणु, एक बूंद है।
यही बात मैं कहना चाहता हूँ कि चेतना का कोई भी केन्द्र जाग्रत हो जाए और चेतना का स्वयं में बोध हो, तो व्यक्ति के भीतर परमात्मा का विकास घटित होता है; भीतर में आनंद की उर्मियां प्रकट होती हैं; आनंद के झरने नाद करते बहने लगते हैं, जिसकी न कोई कल्पना की है, न जिसको कभी अतीत में पहचाना है। मैंने अपने भीतर की गंगोत्री में जाना है कि जब भीतर गहन-शांति, आनंद के स्रोत उमड़ते हैं, तो आदमी आठों याम, चौबीसों घंटे, हर पल आनंद से अभिभूत रहता है। उसकी आंखों में झांके, तो उनमें भी खुमारी की रसधार बहती नजर आएगी, शराब-सी महदोशी होगी। ___आम आंखें दूसरों को देखती हैं, वे अपने-आपको नहीं देखती लेकिन चेतना में जीने वाले की तो हजारों आंखें होती हैं और वह हर आंख से अपने आपको देखता है। दूसरे की आंखों से भी वह अपने आपको देखता है। अपने आप में जीने वाला, अवधूत होने वाला निरंतर आनंद से सराबोर रहता है, दिव्य प्रेम से ओत-प्रोत रहता है। उस पर तो गगन-गर्जना होती है और बादल झिरमिर-झिरमिर बरसते रहते है। वह रेगिस्तान में चला जाए, तो मरुस्थल को भी मरूद्यान बना लेगा। वह रेत के टीलों में से भी आनंद के स्रोत पैदा कर लेगा। नरक को भी स्वर्ग बना लेगा। वह अपने आप में जीता है, अपने में डूबकर जीता है। उसके भीतर तो तारे सदैव झिलमिलाते हैं, चांद हमेशा खिला रहता है, अन्तःकरण सूरज की रोशनी से सराबोर रहता है। जीवन के सत्य और जीवन की संपदा सिवाय अपने को छोड़कर कहीं नहीं है।
रंभाती नदियां, भाग रही हैं जाने किधर ।
सो परम महारस चाखै/१३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org