Book Title: So Param Maharas Chakhai
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 27
________________ अलग देखता है, शब्द और विकल्प से स्वयं को विनिर्मुक्त करके देखता है, चित्त और मन से अलग किसी अस्तित्व को निहारता है, अंतस के आकाश में मौन और परम-धन्यता का आनन्द लूटता है, वह न मन है, न शब्द है, न शरीर का संवाहक है। वह वेश या वेशधर नहीं है। वेश तो, मनुष्य द्वारा बनायी गई पहचान भर है। चाहे गेरुआ पहनो या पीला, सफेद हो या लालकाला। वेश को मात्र वेश तक ही सीमित रखो। वेश पहनकर मात्र वेशधर मत बनो। अंतर-बोध और साक्षी की सतत् जागरूकता, अपनी अंतर की आंखों में सदा ज्योतिर्मय दीप की तरह बनाये रखो। न स्वयं को कर्ता मानो और न ही साधन । कर्ताभाव छूट जाना चाहिये। सारी जवाबदारियां भीतर बैठी सत्ता को सौंप देनी चाहिये। वह जैसा करे या करवाना चाहे, करे-करवाये। हम तो बस आनन्दमयी रहें, चैतन्यमयी रहें, सत्यमयी रहें। नहीं हम दरसन, नहीं हम परसन, रस न गंध कछु नाहीं। आनंदघन चेतनमय मूरति, सेवक-जन बलि जाहीं।। न हम दर्शन हैं, न स्पर्श । न रस हैं न गंध हैं। हम जीवन और जगत् के इन सारे पहलुओं से जुड़कर भी इनसे अलग हैं। आत्म-भाव में जीते हैं। हम तो बस वह मूर्ति हैं, जिसे चैतन्य मूर्ति कहा जाना चाहिये। एक ऐसी मूर्ति जो सचेतन है, चलती-फिरती है मगर आखिर माटी का पुतला है। हमारी चेतना ही हमारा सबसे बड़ा पुरस्कार है। भीतर की महा-गुफा में जितनी स्वच्छता, पवित्रता, उज्ज्वलता होगी, अस्तित्व उतना ही निहाल होगा। आठों याम, ‘बलिहारी' का भाव होगा यानी एक परम-तृप्ति होगी, एक परम-शान्ति होगी। एक परम आनन्द दशा होगी। वही तो बस चाहिए.....परम महारस! 000 सो परम महारस चाखै/२७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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