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जन-जन आगलि अंतर-गतिनी, बातड़ी करिये केही। आनन्दघन प्रभुवैद-वियोगे, किम जीवै मधुमेही।।
बाबा आनन्दघन कहते हैं कि मेरे जीवन में ऐसा अपूर्व अवसर कब आएगा, जब मुझे कोई स्नेही संत उपलब्ध होगा। किसी वीतरागी का अमृत प्रेम, अमृत स्नेह मुझे मिलेगा। मुझे वह महावीर चाहिये, जो गौतम को अपना अमृत प्रेम, अपना अमृत आशीष दे।
बाबा कहते हैं 'संत सनेही'। एक स्नेही संत । बड़ा सुन्दर शब्द है यह। संत और स्नेह -शायद तुम्हें विरोधाभास लगेगा लेकिन मेरे लिए तो स्नेह संत का दूसरा पर्याय है। जिसके अन्तर-मन में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना प्रतिष्ठित है, वह स्नेह का फाग खेलेगा। यह तभी सम्भव है जब सन्त में आत्मवत् सर्वभूतेषु -सारी आत्माएं एक समान हैं, ये भाव जग जाएं। सब समान, सबमें प्रभु की सम्पदा, सबमें एक ही ज्योति की सम्भावना ।
ऐसा स्नेही संत मिले, जो सभी को आत्मवत् माने, तो ही मेरा कल्याण होगा। अन्यथा गुरु दूसरे को शिष्य बनायेगा। गुरु यानी बड़ा, शिष्य यानी छोटा। नहीं! अन्तर-जगत् में ईमानदारी रखने वाले के लिए न कोई बड़ा होता है, न छोटा। उसे अस्तित्व के मूल तत्त्व में द्वैत दिखाई ही नहीं देगा। इसीलिए बाबा कहते हैं 'क्यारे म्हाने मिलसै संत-सनेही ।' ऐसा संत, ऐसा गुरु कब मिलेगा? ___गुरु का अर्थ है- अंधकार दूर करने वाला। 'गु' का अर्थअंधकार, गोबर, और 'रु' का अर्थ होता है- दूर करने वाला। अंधकार दूर करने वाला गुरु! गुरु वह है जिसका खुद का चिराग जला हुआ है और दूसरों को अपनी रोशनी देता है। दीपों की प्रभावना करने वाला गुरु! लड्डुओं की, सिक्कों की प्रभावना रखने वाला गुरु नहीं है, वह तो भीड़ इकट्ठी करने में रस रखता है। 'गुरु चेला दोऊ लालची, दोनों खेलें दांव'। यह तो लोभ-लालच हुआ। प्रेरणा हो निर्लोभ की, निस्पृहता की, ज्योतिर्मयता की, सन्मार्ग की।
उपनिषदों में एक बहुत प्यारा सूत्र है ‘असतो मां सद्गमय, तमसो मां ज्योर्तिगमय, मृतयोर्मा अमृतंगमय', ले चलो हमें असत् से सत् की ओर, तमस से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर। सत यानी
संगत, सनेही संत की/६०
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