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अर्थात मेरी सास एक पल के लिए भी मुझ पर भरोसा नहीं करती और ननद तो सवेरे से ही लड़ने लगती है, बिना यह सोचे कि वह भी किसी घर की बहु है।
मीरा की भी यही हालत थी। सास मीरा पर विश्वास नहीं करती और ससुराल वाले उसे अपनी जाति का कलंक मानते थे जबकि मीरा को तो नाचती हुई भीड़ भी भक्तों की मंडली नजर आती। उसे तो बाजार भी कृष्ण का मंदिर, कृष्ण का वृंदावन दिखाई देता। मीरा को चाहे कोई कुलटा कहे, चाहे उसे विषपूरित प्याला भेजे, चाहे कोई कुछ भी कहे, वह तो बैखौफ धुंघरू बांध नाचा करती
पग धुंघरू बांध मीरा नाची रे । मैं तो मेरे नारायण की आपही हो गई दासी रे । लोग कहें मीरा भई बावरी न्यात कहे कुलनाशी रे। विष का प्याला राणाजी भेजिया, पीवत मीरा हांसी रे। मीरा के प्रभु गिरघर नागर सहज मिले अविनाशी रे।
चाहे कोई मीरा को कुलटा कहे या विष का प्याला पिलाए, मीरा नाचेगी। पांव में धुंघरू बांधकर नाचेगी। अहोनृत्य होगा। आंखों से झरने बहेगे। दीप जलेगा, करताल बजेगा। इकतारा झंकृत होगा। कंठ गुनगुनाएगा। हृदय हुलसेगा। हृदय के मंदिर में आरतियां होंगी। प्रेम का अमृत झरेगा। ‘अपने पिया की मैं तो बनी रे जोगनिया'। अपने पिया की मैं ऐसी जोगनिया बन गई हूँ, जो जन्म-जन्मांतर अपने पिया की ही रहेगी। मीरा, जो पांच हजार साल पहले ललिता थी, वही जन्म-जन्मांतर की घटनाओं के बाद मीरा बनी और हजारों साल बाद अपने पिया को उपलब्ध कर चुकी। वह अपने प्रियतम में वैसे ही समा गई, जैसे शक्कर पानी में विलीन हो जाती है, जैसे बूंद सागर में खो जाती है? बाबा कहते हैं कि कोई भी तरीका नहीं जो मुझे तप्ति दे सके। यह तो जो भीतर अमृत झर रहा है, वही मुझे तृप्ति और आनंद दे सकता है।
पिया बिन झूलं/१२६
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