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होने लगती हैं ।
गुरु की सार्थकता मुक्ति के लिये है। अपने अंतर् - जगत् को झंकृत करने के लिये है । जितनी देर सद्गुरु के साथ जी सको, उतना ही अपना धन्यभाग समझना, स्वयं को उतना ही कृतपुण्य मानना । गुरु तो औरों को बदलना चाहता है क्योंकि उसने स्वयं बदल कर देखा है वह दूसरों को जीवन के प्रति इसलिये उत्सुक करना चाहता है क्योंकि उसने जीवन के रहस्यों को खुद जिया है, समझा है, जाना है ।
काग पलट गुरु हंसा किन्हों, दीन्हीं नाम निशानी । हंसा पहुंचे सुख - सागर में, मुक्ति भरे जहं पानी ।।
गुरु तो वह है जो कौए को हंस बना दे । कौआ प्रतीक है हेय का और हंस प्रतीक है श्रेय का। कौआ कलुषता है, हंस उज्ज्वलता है । कौआ विकृति है, हंस संस्कृति है । गुरु तो कायाकल्प करता है; कौआ हंस बन जाए, महान चमत्कार ! चंडकौशिक भद्रकौशिक हो जाए, नरक ही स्वर्ग बन जाए, बस, इसी की जरूरत है। सद्गुरु की कृपा से हंस उस सुखसागर में, उस मान सरोवर में, क्षीरसागर में ब्रह्मविहार करता है, जिसके सामने मुक्ति तो कुछ भी नहीं है । उस आनंद के सामने मुक्ति क्या ? मुक्ति तो सहचर की तरह साथ जियेगी ।
मेरा विश्वास रूपान्तरण में है। दिल बदल जाये, मन बदल जाये। मन की आंधी थम जाये । अन्तर् जगत् में मरूद्यान लहलहा उठे। मैं सिर्फ रूपान्तरण की कला देना चाहता हूँ। हम कैसे बदल जायें, बस यही मेरी देन है । रूपान्तरण की कला ही मेरी ओर से आपको वसीयत है ।
मेरे पास सोने की टकसालें नहीं हैं। हां! पारस जरूर है, जो हमारी पीर मिटाये, जीवन को स्वर्णिम बनाये, फूल खिलाये, कलकल नाद करवाये। मेरे पास तो वे मूल्य हैं, जिससे व्यक्ति अपने मूल्यों को उपलब्ध कर सके । वह पानी है, जिससे हृदय की प्यास बुझ जाए । स्वाति की वह बदरिया है, जिससे चातक आकंठ परितृप्त हो जाये । वह अमृत.....! निश्चित तौर पर वह अमृत मिल सकता है लेकिन तभी उपलब्ध होगा जब हमारे अंतर- कण्ठ में एक गहरी अभीप्सा, गहरी मुमुक्षा, गहरी तड़पन होगी, गहराई होगी। पानी का उतना ही मूल्य
संगत, सनेही संत की / ८८
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