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हे मेरे अंतर के दीप! निरंतन जलते रहो, निरंतर जगे रहो, प्रियतम के पथ को आलोकित करते रहो। 'विहंस-विहंस मेरे दीपक जल ।' हंसते-खिलते जलते रहो। जल-जलकर ही मैंने ज्योति को जिया है और अब जल-जलकर ही ज्योति को उपलब्ध होना है। अब तो जिस दिन बुझना होगा, वह मृत्यु नहीं, निर्वाण होगा। जलने का बुझना होगा, ज्योति का उपलब्ध होना होगा।
रसो वै सः -मेरा प्रिय तो रसरूप है। मैं रस भीगा हूँ, रस डूबा हूँ, प्रभु के प्रेम में रंगा हूँ। ऐसे रंग में कि धोबी के धोए भी न उतरे। ऐसा रस, ऐसा रंग कि दुनिया इस रंग को कुछ भी कहे, दुनिया तो पागल कहेगी ही, दीवाना कहेगी ही, मुझे कोई परवाह नहीं, मैं तो डूबा हूँ उसके रंग में। तब भले ही कोई इसे पायल का बजना कहे पर मेरा प्रिय जानता है यह मीरा के धुंघरुओं की थिरकन है। तब दुनिया के लिए होगा यह शराब का प्याला, जहर का प्याला। जिसे पीकर मर जाना चाहिये था, उसे पीकर तो मीरा उलटी दीवानी हो गई क्योंकि अब कोई जाम, जाम नहीं है; जहर, जहर नहीं है, सब कुछ मेरे प्रियतम का, मेरे गिरधर गोपाल का चरणामृत हो चुका है। अब कोई पत्ती, पत्ती नहीं है। हर पत्ती पर वेद की ऋचाएं लिखी हैं। अब चिड़ियों की चहचहाहट भी कुरान की आयतें गाती हैं। झरने का बहना, बहना नहीं लगता, पानी की हिलोरों से, झोंको से आने वाली शीतल समीर पाकर ऐसे लगता है मानो हरि ही मुझ पर पंख खे रहा है। ‘हरि मेरा सुमिरन करे'।
___'गाई न जानूं बजाई न जानूं, ना जानूं सुर-भेवा -यह मत समझ बैठना कि मैं गायकी में सिद्धहस्त हूँ। संगीत का, सुरों का, सुरों के भेदोपभेदों का ज्ञाता हूँ। मुझे सुरों के भेदों का पता ही नहीं है कि कौन-सा सुर मध्यम है और कौन-सा पंचम । न ऋषभ का ज्ञान है, न षड्ज का और न ही गांधार या निषाद का। रीझ न जाने रिझाई न जानूं, ना जानूं पर-सेवा' न रीझना आता है, न रिझाना। आकर्षण के कौन-से तरीके हो सकते हैं, मुझे कोई पता नहीं है। बस मैं तो खुद ही खिंच गया हूँ। अब तो जैसी प्रभु की मर्जी। वह अगर खिंचा चला आता है, तो उसकी मौज। मैं तो बस केवट हूँ। नैया हूँ, खेवैया हूँ, जन्म-जन्म से इसी तट पर हूँ, लोगों को खे रहा हूँ। प्रतीक्षा रही है हर बार उस राम की जो मुझमें, मेरे हृदय में रमण कर रहा है।
सो परम महारस चाखै/१०५
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