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शान्त होंगे, तभी अतीन्द्रिय यात्रा प्रारंभ होगी। इंद्रियों के द्वारा ढूंढना चाहो तो वही हालत होगी, जो एक मृग की रेगिस्तान में होती है।
रेगिस्तान में बालू के टीलों पर जब सूरज की किरणें टकराती हैं, तो पानी-सा आभास देने वाला प्रतिबिंब बनता है, जिसे मुगमरीचिका कहते हैं। मृग पानी के प्रतिबिंब के पीछे दौड़ता रहता है, दौड़ता रहता है पर उसे पानी नहीं मिलता। इसी तरह कस्तूरी-मृग कस्तूरी की सौरभ पाकर दौड़ता है, बार-बार दौड़ता है। उसके नथूने खुलते, फूलते हैं, तो उसे सुगंध आती है, वह फिर दौड़ता है। जीवनभर उसकी यह भागमभाग लगी रहती है। हिरण अबोध है, इसलिए वह नाभि में बसने वाली कस्तूरी की खोज जंगल में करता है पर मनुष्य जानवर नहीं है। हां! मन के चक्कर में रहे, तो मनुष्य हिरण-सा ही है।
__भगवान राम भी धोखा खा जाते हैं और नकली हिरण के पीछे दौड़ पड़ते हैं। वे भगवान माने जाते हैं, पर छले जाते हैं। उनको यह पता नहीं है कि हिरण असली है या नकली है। नकली हिरण के पीछे जब-जब भी कोई दौड़ेगा, तब या तो अपना सत्यानाश करवाएगा अथवा सीता को खो देगा। आदमी भी सोने-चांदी के मनमोही हिरणों के पीछे दौड़ता रहता है, रात-दिन दौड़ता रहता है और अन्ततः एक दिन उसकी जिंदगी उसी में खत्म हो जाती है। ___‘सुबह होती है शाम होती है, जिंदगी यूं ही तमाम होती है।' जिन्दगी ऐसी है जैसे पढ़ा हुआ कोई उपन्यास, जिसका सौवाँ पृष्ठ पढ़ने के बाद अगर पूछा जाए कि निन्यानवें पृष्ठ पर क्या पढ़ा, तो मालूम नहीं होता। जिन्दगी के नाम पर आदमी के पास स्मृतियों की पोटली रहती है। वर्तमान में न जीकर वह उन्हीं स्मृतियों के सहारे जीता है। जीवन कोई स्मृति नहीं है, जीवन कोई पढ़ा हुआ उपन्यास नहीं है। वह तो यथार्थ है। जीवन शून्य में से आया है। जीवन का सृजन किसी शून्य से साकार हुआ है। वह शून्य क्या है, मनुष्य के लिए अज्ञात है। उसका ज्ञान बाहर नहीं भीतर है। बाहर झांकी है, भीतर सच्चाई है। बाहर को उपलब्ध करके भी व्यक्ति कितना बाहर को उपलब्ध कर पाया? धन-संपदा इकट्ठी करने, भोग-विलास और संतानोत्पत्ति के अलावा क्या किया? जिन्दगी का सार, श्रम कितना हुआ?
जिन किताबों पर दुनिया विश्वास करती है, वे कहती हैं कि
पिया बिन झूलं/१२२
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