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मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा । तेरा तुझको सौंपते, क्या लागे है मेरा ।।
__ अब ऐसा कुछ नहीं, जिसे मैं मेरा कह सकू। अब न मैं हूँ, न मेरा है। अब जो मैं हूँ, वह तू ही है, जो तू है, वही मैं हूँ। अगर मैंने अपना सिर भी तुम्हारे चरणों में रखा है, तो वह भी मेरा समझकर नहीं वरन् तुम्हारा समझकर ही रखा है। 'तेरा तुझको सौंपते, क्या लागे है मेरा'। मैं तो बस अब तुम्हारे मंदिर का श्रीफल हूँ। जैसा तू चलाना चाहे, चला। जैसा घटित करना चाहे, घटित कर। मैं गुणहीन, सारी प्रशंसा तुम्हारी, बदनामी होगी तो भी तुम्हारी ।
कहते हैं कष्ण ने भोजन का पहला कौर मुंह में रखा ही था और उसे बीच में ही छोड़ कर दौड़े। रुक्मणी ने कहा, 'प्रभु! अचानक क्या हो गया आपको? क्या भोजन में कोई कमी है?'
प्रभु ने कहा, 'मेरे एक भक्त पर भीड़ द्वारा पत्थर मारे जा रहे हैं और वह मेरा नाम लेकर पत्थर खा रहा है।'
अभी वे दरवाजे को पार भी नहीं कर पाये थे कि वापस लौट आये। रुक्मणी ने कहा, 'अब क्या हुआ? 'भक्त को बचाए बगैर वापस कैसे लौट आये?'
कृष्ण ने कहा, 'अब जाने की जरूरत नहीं है। अब भक्त ने खुद ही पत्थर उठा लिये हैं।'
यह उदाहरण समर्पण की परीक्षा है। समर्पण कितना पूर्ण है, कितना गहरा है, इसकी कसौटी है। यदि तुम अपने विश्वास पर दृढ़ रहे, परमात्म शक्ति में, होनी के कर्तृत्व में तुम्हारी आस्था अडिग रही, तो परमात्मा हर जगह, हर समय, हजारों-हजार हाथों से तुम्हारी मदद के लिए तैयार खड़ा है लेकिन अगर तुम कर्ता के अहंकार से मुक्त न हो सके, तो इसका अर्थ है तुम्हारा समर्पण केवल शाब्दिक है, आडंबर है। तुम्हारा विश्वास केवल दिखावा है, प्रपंच है।
वह प्रपंचों में नहीं उलझता। वह तो तुम्हारे समर्पण की सच्चाई को परखता है। तुम उसके नाम पर पत्थर खाते रहो, यह तो महज एक कसौटी भर है। अन्ततः वह तुम्हें बचा लेता है, जब पानी सिर के ऊपर तक आने लगता है। उसकी कृपा उन्हीं के लिए है, जिनमें कर्तृत्व
फूलों पर थिरकती किरणे/१०८
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