Book Title: So Param Maharas Chakhai
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 116
________________ लहड़ी बड़ी की कानि मिटाई. द्वार ते आँखें कबहूं न टरी री।। पट-भूषण तन भौकन उठै, भावै न चोकी जराव जरी री। सिव कमला आली सुख न उपावत, कौन गिनत नारी उमरी री।। सास, विसास, उसास न राखै, नणद निगोरी भौरे लरी री। और तबीब न तपति बुझावै, आनंदघन पीयूष झरी री।। बाबा की आत्मा कहती है- मुझमें तो दिन-रात एक ही रट लगी हुई है- पिया-पिया। रात-दिन खड़ी-खड़ी झूरती रहती हूँ। कब उसका दीदार हो। आंखों की खिड़की पर खड़ी रहती हूँ, एकटक पथ पर नजर गड़ाए रहती हूँ। चातक-सी रटन लगी है- प्रिय, प्रिय! हे प्रभु! तुम्हारी प्रतीक्षा में आंखों में अहर्निश आंस हैं। परमात्मा की प्यास है ही ऐसी कि ज्यों-ज्यों तृप्त होती है त्यों-त्यों बढ़ती जाती है। पड़ाव ज्यों-ज्यों पार होते हैं, मंजिल को पाने के लिए मन उतना ही उतावला हो जाता है। कबीर भी ऐसे ही झूरा करते। नानक की आंखों से ऐसे ही आंसू ढुलका करते। सूर की आंखों में ऐसे ही प्रियतम का नूर बरसा करता। परमात्मा के प्रति जगी इस तड़पन के कारण ही मीरा राजमहल की रानी की बजाय परम-प्रेम की दीवानी कहलाई। यह मार्ग ही ऐसा है। यह तो सावन की प्यासी बदली है। इस पीड़ा में भी एक अनेरा आनन्द, एक आह्लाद, परम-धन्यता का पुरस्कार रहता है। पीड़ा भी सखि! दिया करती. मधुरिम सुहाग की सुख-वेला । तुम बाट जोहती जिस मग पर, वह मग तो दुर्गम का गम है। तुम सिसकाया करती मन में, वह सिसक नहीं, चिर सरगम है। पिया बिन झूरूं/११६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128