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तरीके से खिलना होगा, खिला देगा। अस्तित्व निरंतर अमृत की वर्षा कर रहा है। तुम्हीं आनाकानी करते हो। लहरें अगर पार लगाने को खुद तैयार हों, तो हम पतवारों की सरपच्ची क्यों करें? हम सागर के बीच हैं, मझधार में। पता नहीं किनारा किधर है, किस दिशा में हैं, तो पतवारों को एक तरफ पटको। लहरें जिधर जा रही हैं, जिधर ले जा रही हैं, वहीं किनारा है।
आनंदघन का पद है
अवधू क्या मांगूं गुनहीना, वे तो गन गगन प्रवीना । गाई न जानूं, बजाई न जानूं, ना जानूं सुर-भेवा। रीझ न जानूं, रिझाई न जानूं, ना जानूं पर-सेवा।। वेद न जानूं, कतेब न जानूं, जानूं न लक्षण-छन्दा। तरकवाद-विवाद न जानूं, ना जानूं कवि-फन्दा ।।। जाप न जानूं, जवाब न जानूं, ना जानूं कथ-वाता। भाव न जानूं, भगति न जानूं, जानूं न सीरा-ताता।। ज्ञान न जानूं, विज्ञान न जानूं, ना जानूं भजनामा । आनंदघन प्रभु के घरिद्वार, रटन करूं गुण-धामा।।
एक गुणहीन गुणों के अनंत आकाश से क्या मांगे! कुछ तो अपने में भी हो कि किसी से कुछ मांगा जाए, तो उसे पाकर हम प्राप्त को सार्थक कर सकें। मैं गुणहीन, औंधा पात्र । अस्तित्व ने कुछ बरसा भी दिया, तो औंधे पात्र में क्या जाएगा?
कुछ तो पात्रता हो। पात्रता ही नहीं है, तो अपात्र में कुछ भी देने से दिया हुआ बेकार ही जाएगा। पात्र हो, सत्पात्र, तब तो टिकेगा। पात्रता और अपात्रता तो दूर की बात है, बाबा तो कहते हैं, पात्र ही नहीं है, तो क्या मांगू? क्यों मांगू? मुझे गुण-अवगुण का कोई पता ही नहीं है। मैं तो बस उसमें डूबा हूँ। मैने तो बस उसके नाम का, उसके रस का दीप जला रखा है ताकि वह आए, तो उसे मेरे जीवन का पथ अंधकार से घिरा न मिले ।
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल, प्रियतम का पथ आलोकित कर।
फूलों पर थिरकती किरणे/१०४
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