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संत सनेही सुरजन पाखै, राखे न धीरज देही।
आखिर, स्नेही संत ही तो भीतर में हो रहे चैतन्य-सृजन को देख-समझ सकता है। आम लोगों को, संसारियों को कहने का कोई मतलब नहीं है; उनमें धैर्य तो होता नहीं। ढिंढोरा पीट बैठे। चेतना की पीड़ा, चेतना के अनुभव, चेतना की गहराई उसे ही कही जा सकती है, जो खुद उस गहराई में जीने का दमखम रखता है। पीड़ा तो आखिर पीड़ा ही है, चाहे वह तन की हो या मन की अथवा जन्म-जन्मान्तर से कर्म संस्कारों के बोझ को ढोये चली आ रही चेतना की हो। तन की पीड़ा मिटाने के लिए चिकित्सक हैं; मन की पीड़ा को बंटाने के लिए मित्र हैं और चेतना की पीड़ा को शान्त करने के लिए सद्गुरु हैं, सन्त
हैं।
___ मैत्री तो हृदय की ही प्यास का नाम है। मैत्री के फूल तो सदा खिले हुए रहने चाहिये। सन्त होने का अर्थ यह नहीं है कि हम संसार के दुश्मन हो जायें, संसार से टूट जायें। नहीं! मुनित्व तो संसार से ऊपर उठने का नाम है। आखिर सन्त बनकर भी तुम जीते तो संसार में ही हो। पहनावा बदल जरूर जाता है, पर रहता तो है ही। भोजन करने के वक्त पर पाबंदी आ जाती है पर भोजन तो करना ही पड़ता है, व्यवस्था और जुगाड़ भी बैठानी पड़ती है। नाम बदल जाते हैं, ठांव बदल जाते हैं पर फिर भी नाम तो रहता ही है। सन्त होने से कोई गुमनाम तो हो नहीं जाते। घर छोड़ दिया तो क्या हुआ आश्रम बना लिया, आश्रय, स्थानक बना लिया। खाना-पीना, ओढ़ना-बिछाना यानी आवश्यकताएं और उनकी पूर्ति तो जारी ही रहती है।
सन्त होने का अर्थ हुआ मन का शान्त होना, मन का यातायात थम जाना। मानसिक उठापटक, ऊहापोह का शान्त हो जाना। प्रेम
और मैत्री आध्यात्मिक जीवन को रसपूर्ण बना देते हैं। धर्म और अध्यात्म में से प्रेम और मैत्री को बाहर निकाल दो, तो धर्म और अध्यात्म, नीरस और बेस्वाद हो जाएंगे। प्रेम आध्यात्मिक होकर, अध्यात्म के उजड़े वन को भी हरा-भरा कर देता है। मैत्री सन्त के साथ जुड़कर एकाकीपन को उत्सव और उल्लास से भर देती है। मैत्री में निश्च्छलता और प्रेम में पावनता हो, तो दुनिया में उससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है।
सो परम महारस चाखै/६३
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