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एक ही अर्थ समझा है- काम, वासना, सैक्स। काम तो प्रेम की विकृति है और प्रेम काम का संस्कार है। प्रेम जब काम बन जाता है तो यह प्रेम का अधोपतन है। तब प्रेम क्षणिक स्वर्ग है। एक ऐसा स्वर्ग, जिसका परिणाम नरक है। एक ऐसा नरक, जिसका रास्ता स्वर्ग से
आता है। प्रेम तो स्वर्ग है। निष्काम प्रेम से बढ़कर जीवन का न कोई रस है, न फूल है, न स्वर्ग है। प्रेम का काम में रूपान्तरण नरक है। काम का प्रेम में रूपान्तरण स्वर्ग है। प्रेम और काम में उतना ही फर्क है, जितना कीचड़ और कमल के बीच होता है। काम नीचे की तरफ बहता है और प्रेम ऊपर की तरफ। काम कीचड़ में धंसता है। प्रेम कमल की तरह खिलता है।
प्रेम अपनी ओर से देना है, काम मांगना है। प्रेम दान है, काम याचना है। कामुक दूसरों से सुख चाहता है। प्रेम में दूसरों का महत्व नहीं होता। वह तो सदा छलछलाया हुआ रहता है -बादल की तरह, बरगद की तरह। बादल का स्वभाव बरसना है, बरगद का काम छांह लुटाना है। कोई पानी ले या न ले, कोई छांह में बैठे या न बैठे, बादल तो बरसेगा, बरगद तो छांह बरसाएगा। संत का प्रेम, सद्गुरु का स्नेह तो झरने की तरह है, वह तो बहेगा, झरेगा। कल-कल नाद करेगा। तुम नहाओ, तुम्हारी मौज; सकुचाओ, तुम्हारी मौज। मित्र बनाओ, तुम्हारी मौज; दुश्मन समझो, तुम्हारी मौज । संत तो प्रेम रूप है, प्रेम का पर्याय है। संत प्रेम का गलत अर्थ ले बैठता है, तो संतत्व का इससे बड़ा संहर्ता और कोई नहीं। प्रेम डुबोता भी है, प्रेम तारता भी है। प्रेम वही जो पार लगाए। मेरा प्रेम सब तक पहुंचे, अनन्त रूप में, अनन्त वेश में।
बाबा कहते हैं, मुझे चाहिये स्नेही संत। संत तो बाबा खुद हैं। और ऐसा नहीं कि उनके पास संतों की कमी है। बड़े-बड़े आचार्य, संत उनसे मिलते थे पर सबमें अपना-अपना अहंकार। मैत्री के स्वर तो किसी के हृदय से सुनाई ही नहीं देते। किसी की आँखों में हृदय का सम्मान नहीं है। बस, आये, मिले, गये। वही बारातियों वाला सिद्धान्त-खाओ और खिसको। स्नेही चाहिये, प्रेमी चाहिये -जो एक प्राण हो जाये! जो अस्तित्व का सहचर हो जाये! जो अन्तर्बोधि का गवाह बन जाए।
संगत, सनेही संत की/६२
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