________________
जो 'है' । जो नहीं है, वहां से हमें जो है, वहां तक ले चलो ताकि असत् से सत् की ओर हमारे कदम बढ़ सकें । 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' । हमें तमस् से प्रकाश की ओर ले चलो। रोशनी की ओर बढ़ो, अंधकार स्वतः छूट जाएगा। हृदय में अच्छाइयों के गुल खिलाओ, कांटे पीछे छूट जाएंगे। पहल अंधकार मिटाने की नहीं, प्रकाश को उजागर करने की हो । अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं होता, प्रकाश के अभाव का नाम ही अंधकार है। जहां प्रकाश नहीं, वहीं अंधकार है । जैसे-जैसे प्रकाश होगा, अंधकार अपना रास्ता नापेगा ।
गुरु प्रकाश है, गुरु आंख है। आंख है, तभी प्रकाश है तभी अंधकार है । अंधकार को पहचानना है, तो इसके लिये भी आंख चाहिये। ऐसा नहीं कि अंधे के लिये प्रकाश नहीं वरन् अंधकार भी नहीं है । अंधकार हो या प्रकाश, दोनों की पहचान के लिए आंख चाहिये। आंख के भीतर की आंख ! चाहे प्रकाश हो या अंधकार, हो या अजान, सत् हो या असत्, चित् हो या अचित्, हर चीज के लिये आंख चाहिये, दृष्टि चाहिए। सद्गुरु से हमें आंख मिलेगी । प्रकाश से संवाद करने की भाषा मिलेगी । भीतर की आंख कैसे खुले, वह मार्ग उपलब्ध होगा ।
जान
आनन्दघन कहते हैं- क्यांरे म्हानै मिलसै संत - सनेही । संत तो बहुत मिलते हैं मगर बाबा कहते हैं- स्नेही संत कब मिलेंगे। ऐसा संत नहीं मिलता। अपना कल्याण करने वाले संत तो हजारों-हजार हुए लेकिन जो हमारा कल्याण कर दे, हमें रूपान्तरित कर डाले, हमारे मन की खटपट को शान्त कर दे, ऐसे स्नेही संत कम मिलते हैं । सिद्ध तो बहुतेरे हुए लेकिन तीर्थंकर कम ही हुए । तीर्थंकर होना यानी स्नेही संत होना है। सिद्ध वे हैं जिन्होंने अपना कल्याण किया और निर्वाण को उपलब्ध हुए । स्नेही वह है जो अपना कल्याण करते हुए औरों के प्रति करुणा रखे। जो अपने उद्धार के साथ-साथ औरों का भी उद्धार करे । अपने आत्म-अनुभव के प्रकाश से दूसरों को भी लाभान्वित करे। जो दूसरों को आलोकित होने का आह्वान करता है, वही स्नेही संत है ।
यह हर किसी की किस्मत में नहीं होता कि संत से प्रेम करे । जिसके प्राणों में पावनता का गंगाजल छलका, उसी के अन्तर्-हृदय में संत के लिये प्रेम जग सकता है। संत से प्रेम! लोगों ने प्रेम का सिर्फ
Jain Education International
सो परम महारस चाखै/६१
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org