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है। देरी हमारी ओर से है, वहाँ तो हाजिर जवाबी है। इधर हाथ बढ़ा, उधर उसने थामा।
चहुँ ओर मेरे घोर अंधेरा, भूल न जाऊं द्वारा तेरा । एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो, छम-छम नीर बहाऊं मैं ।
ऐसा नहीं है कि परमात्मा हाथ नहीं थामता। परमात्मा ने तो अपना हाथ हमारी ओर बढ़ाया ही हुआ है। हम ही अगर परमात्मा की ओर अपने हाथों को नहीं बढ़ाते, तो परमात्मा हमारे हाथों को कैसे थाम पाएगा। सद्गुरु की ओर से तो पूरी तैयारी है, उसकी करुणा की प्याली तो छल-छला रही है, वह तो अपनी ओर से लुटाने के लिये तैयार है मगर लूटने वाले ही कंजूस हैं, तो सद्गुरु क्या करे?
___ हमारा पात्र जितना विराट होगा, स्वीकार करने का भाव जितना गहरा होगा, उपलब्धि भी उतनी होगी। वह उपलब्धि ही हमें देगी एक आनंदपूर्ण, आह्लादित, परम-धन्यता! अपने हाथ बढ़ाओ, सत्य-हृदय के द्वार खोलो, अपनी अभीप्सा का दीप जलाओ।
देरी हमारी तरफ से है. देने वाले की तरफ से नहीं। अंधकार है, तो हमारे कारण से है, न कि परमात्मा के कारण या सद्गुरु के कारण ।
जितने कदम हम गुरु के साथ चलेंगे, उतने ही सार्थक होंगे। जितना गुरु के साथ चला, चांद उतना ही पूर्णिमा की ओर बढ़ा। जितनी देर साथ जिये, उतनी ही शांति का स्नेहभरा स्पर्श मिला। उनके सान्निध्य में बैठो, तो उनका सान्निध्य भी अपने आप में ध्यान को उपलब्ध करवाता है। सद्गुरु का सान्निध्य समाधि के बदरीवन की सैर करवाता है।
लोग तो बहुत कुछ बोल कर भी कुछ नहीं बोल पाते और गुरु कुछ न बोल कर भी बहुत कुछ बोल जाता है। वह भीतर ही भीतर चेतना की तरंग से शिष्य के अंतर-जगत् को तरंगायित कर देता है और किसी को खबर भी नहीं लगती। इधर गुरु ने अपने भीतर वीणा झंकृत की, उधर शिष्य का अन्तर-मन वीणा की झंकार के साथ थिरकने लगा। यह सब अपने आप स्वतः ही होता है। जिस तरह सूरज उगता है और कमल खिलने लगता है। बारिश होती है और कलियां संजीवित
सो परम महारस चाखै/८७
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