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उजड़ा हुआ लगता है। वह उजड़ा हुआ है तो भी हमारे ही कारण और हरा-भरा, लहा-लहा रहा है तो भी हमारे ही कारण। सब कुछ हम पर निर्भर है। वन उजड़ा हो तो भी जमीन तो है ही, बीज भी भीतर के कोने में कहीं दबे पड़े हैं। बस वर्षा की प्रतीक्षा है। वर्षा तभी सार्थक हो सकती है, जब बीज जमीन का साहचर्य ले ले। बीज जमीन में चला जाये। बीज जमीन में दबा हो, तो ही बारिश का, बादलों के छाने का कोई अर्थ है अन्यथा जमीन की सतह पर पड़े बीजों को तो बारिश अपने साथ बहा ले जायेगी। वर्षा को परितृप्ति तब होती है, जब वह बीज में छिपी विराटता को प्रकट कर दे। चेतना के तरुवर को हरा-भरा कर दे।
माना तुम मुक्ति चाहते हो। मुक्ति जीवन से नहीं पानी है, मुक्ति तो अपनी वृत्तियों से पानी है। अन्तर्-मन में उठते अंधड़ से पानी है। मुक्ति तो तुम्हारी चेतना का स्वभाव है। अपने द्वारा जन्म-जन्मान्तर से डाले गये पर्दो को अगर ध्यानपूर्वक उतार फेंको, तो मुक्ति की संभावना अस्तित्व में स्वतः अवतरित हो जाए।
हालांकि हमारा अन्तर्-जगत् चिराग की तरह रोशन है पर यह बोध शुभ है कि मुझमें सौन्दर्य नहीं है, मेरा अन्तर्-हृदय कज्जल-सा काला है। तुम्हारा अस्तित्व तो सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का संवाहक है, स्वामी है। जिसे अपने भीतर की असुन्दरता का बोध हुआ है, अस्तित्व का वास्तविक सौन्दर्य उसी के घर-आंगन में उतरता है। माटी की काया तो बनती है, मिटती है पर इस बनने और बिगड़ने के बीच जो शाश्वतता का दस्तूर है, ज्योतिर्मयता का बीज वहीं है। मैंने भीतर की वह सत्यता, वह शिवता, वह सुन्दरता पहचानी है, उसके आभामंडल को जाना है, इसीलिए तुम्हें आह्वान है, तुम्हारे लिए मेरे हजारों आशीष हैं।
प्राणों के गहरे गह्वर में ममतामय विचरो। मेरे मन के अन्धतमस में ज्योतिर्मय उतरो ।
इन शब्दों में काफी गहराई है 'प्राणों के गहरे गह्वर में ।' भीतर की महागुफा में, प्राणों के प्राण में उतरने का निमन्त्रण है। स्वागत है इस भावना का; विराट को तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार है।
प्रयास यही हो कि हम सबका अन्तर्-रूपान्तरण हो। मानस में
सो परम महारस चाखै/८५
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