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तरह फूल बन सकते हो। सब कुछ हम पर निर्भर करता है कि हम क्या बनना चाहते हैं?
सम्राट अकबर के बारे में सभी जानते हैं कि अकबर अंगूठा छाप आदमी था। उसे अपने हस्ताक्षर तक करने नहीं आते थे पर उसकी सभा में दुनिया भर के विद्वान रहते थे। एक मुसलमान सम्राट होते हुए भी जैन-आचार्यों को सम्मान देता, ईसाई पादरियों को अपनी सभा में आमंत्रित करता और हिन्दू-पंडितों को अपना राजपुरोहित बनाता ।
गुण तो हर जगह हैं। गुण लेने की कला हो, तो हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण है। हमारी दृष्टि गुणात्मक हो, तो सर्वत्र गुण हैं। ऐसा नहीं है कि परम-पुरुष या महापुरुष सारे के सारे अतीत में ही हुए हैं, वर्तमान में कोई नहीं है। नहीं! वर्तमान में भी महापुरुष, परम-पुरुष उपलब्ध हैं। तुम्हारी दृष्टि सम्यक्-दृष्टि है, तो सर्वत्र सद्पुरुष ही सद्पुरुष हैं। तुम्हारी दृष्टि ही असम्यक्, मिथ्या और मूर्छाग्रस्त है, तो तुम महावीर के पास जाकर भी खाली हाथ लौट आओगे, ठीक वैसे ही जैसे गौशालक लौट आया था। वह महावीर जैसे तीर्थंकर के पास जाकर भी मुक्त नहीं हो पाया। महावीर के पास जाकर भी तेजोलेश्या ही सीख पाया। सद्गुरु के पास जाकर भी व्यक्ति कुछ हासिल नहीं कर पाता क्योंकि सत् को पाने की भीतर कोई ललक नहीं है। नतीजा यह होगा कि तुम सद्पुरुष के पास जाओगे तो भी तुम्हें वहां सत् दिखाई नहीं देगा। तुम्हारी असत् वृत्तियां वहाँ से भी कुछ असत् ही ग्रहण कर आयेगी।
किसी साध्वी के पास कोई पुरुष बैठा है, तो तुम यह नहीं सोचोगे कि वह उनका शिष्य है। तुम सोचेगे कि दाल में जरूर कुछ काला है। दाल में काला वहां नहीं है। दाल में काला तुम्हारी आंखों में है, इसलिए तुम्हें सर्वत्र दाल में काला ही दिखाई देता है। किसी सद्गुरु के पास महिला अकेली बैठी मिल जाए, तो तुम्हारी मानसिकता में सब कुछ अन्यथा हो जायेगा
जिस नजर को लेकर हम वहाँ जाते हैं, हमारे लिए सब वही हो जाता है। काला चश्मा पहनकर हम सोचें कि दीवार हमें सफेद दिखाई दे, तो यह संभव नहीं है। दीवार तो सफेद है, सफेद थी और सफेद रहेगी। तुमने उस दीवार को काला कहा, तो दीवार काली नहीं हुई
जगत् गुरु मेरा/६०
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