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मगर काले चश्मे के कारण तुम्हारा दृष्टिकोण जरूर काला हो गया। पहले अपनी नजर सुधारो। पहले अपने काले, हरे, नीले, पीले चश्मों को उतारो। फिर स्वच्छ आंखों से किसी को देखो, तो तुम्हें सब जगह अच्छी चीजें दिखाई देंगी। तब संन्यासी में ही संन्यास दिखाई नहीं देगा वरन् असंन्यासी में भी संन्यास की नई किरण नजर आ जाएगी।
आचार्य स्थूलिभद्र वेश्या के यहां चातुर्मास करके आए और शास्त्रों ने गुणगान गा दिया, तो तुमने भी मान लिया। आचार्य स्थूलिभद्र इस जमाने में होते, तो हम उन्हें अपने काले चश्मों से देखते और उन पर पत्थर ही मारते। लोग स्थूलिभद्र को सन्त या आचार्य नहीं, मजनूं कहते। तब कोशा उनके लिए कोई श्राविका नहीं, वेश्या ही होती, जो पहले थी।
आनंदघन कहते हैं
जगत् गुरु मेरा, मैं जगत् का चेरा। मिट गया वाद-विवाद का घेरा।।
अब कैसा विवाद, कैसी सरपच्ची? मैंने तो मान लिया कि सारा संसार ही मेरा गुरु है। अब मैं किसका प्रभु, किसका दास? अपने से सबको बड़ा मान लिया।
यथार्थ में व्यक्ति का अहंकार इतना झुक जाना चाहिए कि वह जगत् को ही अपना गुरु स्वीकार कर ले। ईगो शून्य हो जाए, मिट जाए? अहंकार की अर्थी निकल जाये। अहंकार की चिता सुलग उठे ताकि शुद्ध-चैतन्य में प्रवेश हो सके। सन्त जगत् को अपना गुरु माने, यह महान दृष्टिकोण हुआ। व्यक्ति का अहंकार इतना झुक जाना चाहिए कि एक गृहस्थ जब सन्त को हाथ जोड़ सकता है; सन्त के पांव पड़ सकता है यानी गृहस्थ -जिसे हम ‘संसारी' कहते हैं, वह अपना अहंकार इतना झुकाने को तैयार हो गया, तो सन्त को उस गृहस्थ को प्रणाम करने में संकोच क्यों आता है? अगर तुम्हारा अहंकार इतना भी नहीं गिरता है, तो साधुता का अर्थ क्या हुआ? ___ साधु की साधुता का अर्थ आशीर्वाद के रूप में हाथ ऊपर करने में नहीं है। साधु का अर्थ अपने अहंकार को इतना झुका लेना है कि
सो परम महारस चाखै/६१
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