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की तरह भीतर की शांति को जिया है। उसके आनंद का रसास्वादन किया है। भीतर के कमल की पंखुरियों से झरने वाले मधु का आस्वादन और आचमन किया है। इसलिए जानता हूँ कि भीतर का आनन्द कैसे घटित हो सकता है।
भीतर का आनन्द घटित करनेके लिए, भीतर में समाई विषमता को मिटाने के लिए आनन्दघन का आनन्ददायी पद है
साधो भाई समता रंग रमीजै, अवधु ममता संग न कीजै । संपत्ति नाहीं नाहीं ममता में, रमतां राम समेटै । खाट-पाट तजि लाख खटाऊ, अंत खाक में लेटै।। धन धरती में गाडै बौरे, धूरि आप मुख लावै । मूषक सांप होवेगा आखर, तातें अलच्छि कहावै ।। समता रतनागर की जाई, अनुभव चंद सुभाई। काल-कूट तजि भाव में श्रेणी, आप अमृत ले जाई।। लोचन चरण सहस चतुरानन, इनते बहुत डराई। आनंदघन पुरुषोत्तम नायक, हितकरि कंठ लगाई।।
बाबा आनन्दघन कहना चाहते हैं उन सभी लोगों से, जो विषमता से उबरना चाहते हैं, कि विषमता का सागर समता से ही पार पाया जा सकता है। समता का रंग ही सच्चा रंग है। कबीर कहते हैं अगर परमात्मा को उपलब्ध करना है, तो वह राम का रंग है। आनंदघन कहते हैं कि आत्मा को उपलब्ध करना है तो समता का रंग है।
जब तक व्यक्ति को समता की चेतना उपलब्ध नहीं होती, तब तक व्यक्ति खेत के बीच खड़ा लकड़ी के भूसे का पुतला मात्र होगा। उसके लिए स्वर्ग नहीं है। जीवन में कदम-दर-कदम अंधकार से जूझना होगा उसे। समता तो जीवन का प्रकाश है, दिव्य अमृत है, सर्वतोभद्र
औषधि है। समता, मन के शान्त हो जाने का नाम है। यह आत्मा को ही उपलब्ध हो जाने का पर्याय है। महावीर भी यही कहते हैं कि जो समता को उपलब्ध है, वही व्यक्ति सामायिक में है।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं- समत्वम् योग उच्चते। समता ही व्यक्ति के लिए महान योग है। समत्व को ही योग और सामायिक कहा
समता का संगीत सुरीला/७२
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