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है पर गुरु के शब्द भीतर से डुबकी खाकर आए हुए होते हैं, गुरु के तो दो-चार शब्द ही काफी हैं।
चंडकौशिक महावीर को डंसता है तो महावीर कहते हैं-बुझ्झ, बुझ्झ, बुझ्झ और चंडकौशिक बोधि पा लेता है। चंडकौशिक, भद्रकौशिक हो जाता है। जिस चंडकौशिक ने पूर्वजन्म में मुनि-वेश स्वीकार किया; फिर भी जो शांत नहीं हो पाया, वही महावीर-सा सद्गुरु पाकर क्षणभर में बदल गया। सद्गुरु की शब्द-लाठी है ही ऐसी।
अंगुलीमाल पर बुद्ध के शब्द की ऐसी लाठी पड़ी कि वह डाकू से भिक्षु बन गया।
एक महान् सन्त हुए हैं -रज्जब। एक दिन रज्जब ने अपने गुरु से कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ। फकीरी लेना चाहता हूँ। गुरु ने कहा- समय आने दो। बात वहीं की वहीं रह गयी।
समय और संयोग बदला। रज्जब की शादी होने लगी। उसकी बारात रवाना हो गई। बारात दुल्हन के द्वार पर पहंच गई। जैसे ही रज्जब घोड़े से उतरा, वैसे ही गुरु को सामने पाया, गुरु ने फटकारा
‘रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बांधा मौर। आया था हरि भजन को करे नरक को ठौर ।'
‘रज्जब तूने भी क्या गजब किया। तू आया तो था यहां मेरे साथ भजन करने और विवाह रचा रहा है।' यह दोहा रज्जब पर लाठी का वार कर गया। जैसे पशुओं की चीत्कार सुनकर नैमिनाथ का रथ गिरनार की ओर मुड़ गया, वैसे ही रज्जब की बारात का वह जलसा संन्यास में तब्दील हो गया। मौर उठाकर उसने एक किनारे रख दिया
और संन्यासी बन गया। पता नहीं सद्गुरु का कौनसा शब्द कब लाठी का काम कर जाये।
__ भाग्यशाली हैं वे जिन पर गुरु ने शब्दों की ऐसी लाठी का वार किया, जिन पर गुरु की ऐसी फटकार बरसी कि वे मुड़ गए, बदल
सो परम महारस चाखै/६३
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