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गए, रूपान्तरित हो गए। वे क्या थे, क्या होने जा रहे थे पर गुरु ने ठीक वक्त पर मार्मिक वचनों से दिशा निर्देश किया और वे 'वह' हो गए 'जो' वे होना चाहते थे, 'जो' उन्हें होना चाहिए था। गुरु का यह वार, वार नहीं आशीर्वाद है, उसकी कृपा है, उसके प्यार का उपहार है यह ।
हर वह मुमुक्षु जो गुरु की फटकार में छुपे रहस्य को समझ पाता है, उसके गूढ़ार्थ में बसे कल्याणक संदेश को ग्रहण कर पाता है, उसके वचनों के मर्म को आत्मसात कर पाता है, उसकी दिशा ही बदल जाती है । क्षणभर में एक क्रान्ति घटित होती है और उसकी भावधारा बदल जाती है, अन्तर्-दृष्टि जाग्रत हो जाती है। चेतना पहचानती है अपने स्वरूप को और मुड़ जाती है अंतस् के आकाश की ओर, पार्थिव दृष्टि की सीमा में आबद्ध क्षुद्र संसार से परे विराट की ओर । वह अंतस् के अनन्त विस्तार में अहोनृत्य करते आनन्द के अथाह निर्झरों का निनाद सुनती है और उनका अमृत पानकर तृप्त होती है, उसकी युगों-युगों की तृषा आत्मिक अमृत के एक कण से शांत हो जाती है। गहन शांत और मौन । और इस मौन में ही गा उठती है
राम तजूं मैं गुरु को न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं ।
आनंदघन कहते हैं
गुरु के घर का मरम न पावा । अकथ कहानी आनंदघन बाबा । ।
मेरी सामर्थ्य ही क्या है कि मैं गुरु के घर का मर्म पा सकूं। गुरु का अन्तर्-हृदय कितना गहरा है, इसको मैं नहीं जान सकता। मैं तो सिर्फ इतना ही जानता हूँ, इतना ही समझता हूँ कि गुरु के अन्तर्जगत में कोई ऐसी आनंद की बदरिया उमड़ रही है, जिसकी कहानी को कोई कह नहीं सकता; जिसकी फुहार में, जिसके रस में वह दिन रात भीगा है।
सुधिजन गुरु के चरणों में न्यौछावर होते हैं । वे वर्षों गुरु की खोज करते रहते हैं और जब एकबार गुरु को पा जाते हैं, तो फिर
जगत् गुरु मेरा / ६४
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