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पहुंच सके। अब तक धरती पर लाखों-करोड़ों संत हुए हैं। आज की तारीख में दस लाख से भी अधिक संत हैं लेकिन जिन्हें हम सही अर्थों में संत कह सकें; जो सही तौर पर साधुता को उपलब्ध हों, ऐसी विभूतियां विरल ही हैं।
साधुता की सुगन्ध वेश से नहीं वरन् उसके अन्तर्-हृदय से आती है। जिसका मन भटक रहा है वह संत होकर भी गृहस्थ है। जो शांत जीवन जीता है, शांत चित्त जीता है, वह संत है। जिससे शांति के निर्झर बहते हैं, वह संत है।
चित्त की शांति और आत्मा का आनंद, बस यही काफी है। ये दो बातें जिसमें घटित हैं, उसमें शेष सारी बातें स्वयमेव घटित हो जाती हैं। जीवन का फूल स्वतः खिलखिलाता रहता है, अपने आप महकामहका रहता है। फूल तो अनगिनत किस्म के होते हैं पर सौरभ और सौन्दर्य, दोनों का संतुलन तो हर किसी फूल में नहीं होता।
बाबा आनंदघन एक अद्भुत फूल हैं-सौन्दर्य भी है और सौरभ भी। स्वर्णकमल! मान-सरोवर में खिला फूल है यह -जीवन के मानसरोवर में। आनंदघन जैसे स्वर्णकमल-ब्रह्मकमल धरती पर कभीकभार खिलते हैं। युगों में एकाध। मुझे इस फूल से प्यार है, इसलिए कि यह अपनी परिपूर्णता में खिला। मरुस्थल में खिला। भंवरों और पतंगों को जी भर पराग लुटाया। करुणाद्रवित होकर लोगों को चेताया। अध्यात्म को जीकर अध्यात्म-पुरुष कहलाया। ऐसे अमृतपुरुषों से ही अध्यात्म संजीवित रहा है।
आनंदघन का फूल किसी गमले या बाग में नहीं खिला। यह तो मरघट में खिला फूल है। मरघट की बस्ती में खिला सिद्धत्व का फूल । मरुस्थल में खिला मरूद्यान। यह तो मुक्त गगन का पंछी है। आकाश भर आनन्द लूटने वाला।
श्मशान में रहकर साधना करने वाले, मरघट में जीकर अपने आपको उपलब्ध होने वाले संतो के इतिहास को देखें, तो तीन नाम हमारे सामने आते हैं -गजसुकुमाल, महावीर और बाबा आनन्दघन । ऐसे योगियों के लिए तो श्मशान ही बस्ती बन जाते हैं। उनके लिए श्मशान, श्मशान नहीं, सिद्धों की बस्ती है, बोधि-विहार है, अर्हत्-विहार
है।
हम पंछी आकाश के/३२
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