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जगत् गुरु मेरा
मेरे प्रिय आत्मन्!
'गुरु चरणं-गुरु शरणं ।' ऐसे लोग कृतपुण्य और सौभाग्यशाली हैं, जिनके अन्तर-हृदय में गुरु के चरण हैं, गुरु की शरण है। वे भाग्यवंत हैं, आत्मवासी हैं, जिनके अन्तर्-मानस में सद्गुरु की लौ जगमगा रही है। यह लौ भीतर के अंधकार को भगाने के लिए पर्याप्त है। बदलती परिस्थितियों के चलते मनुष्य की धर्म से जड़ें टूट चुकी हैं। ऐसे में सद्गुरु की स्मृति, उस परम-पुरुष की सन्निधि हमें प्रकाश से भर सकती है, अपने आभा-मंडल से आलोकित कर सकती है। ____ मनुष्य वर्तमान में हाथ में बुझी हुई मशाल उठाए चल रहा है क्योंकि धर्म से उसकी जड़ें कट जाने के कारण उसकी लौ बुझ चुकी है। मनुष्य हाथों में खाली डंडे लेकर न जाने किस दिशा में चला जा रहा है। परिणाम यह हुआ है कि हमने अपने-अपने गुरु और उनके पंथ को लेकर लड़ना शुरू कर दिया है।
इतिहास में अब तक जो परमात्मा, तीर्थंकर, अवतार, सद्गुरु या सिद्ध हो चुके हैं, वह उनका सौभाग्य था। हमारा सौभाग्य तो यही है
सो परम महारस चाखै/४६
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