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नाम के साथ गुरु लिखने-लिखवाने में लगा है पर जीवन में गुरुता कहां है? कहने भर को फूल हैं, पर सौरभ? कहीं नामो-निशान नहीं मिलेगा सौरभ का। आचार्य पद पाना या नाम के साथ आचार्य शब्द लिखना जितना सरल है, जीवन का आचार्य बनना, जीवन का कायाकल्प करना उतना ही मुश्किल है। जीवन तो अनाचार के गर्त में गिर रहा है और तुम स्वयं को आचार्य कहकर शिखर-पुरुष कहलाना चाहते हो। यह 'गुरु' और 'आचार्य' पद भी मानो पदमश्री जैसी उपाधि बन गया हो।
और शिष्य! शिष्य सही मिले, यह भी कब सम्भव है? शिष्य के नाम पर सारे गुरु ही मिलते हैं। और गुरु भी ऊँचे दर्जे के। मौका मिलने की देर है। 'चेला नहीं तो न करो चिंता, चेले पण घणो दीधो दुख' यह समयसुंदर जैसे पंडित-पुरुष की व्यथा है। इसीलिये शिष्यों की बढ़ोतरी या समाज में छाप छोड़ने के लिए चलते-फिरतों को चेला मत बना लेना। सशिष्य की तलाश की जानी चाहिये। बगैर पात्रता के कोई शिष्य नहीं है और बगैर गहराई के कोई गुरु नहीं है। सही शिष्य और सही गुरु दोनों दुर्लभ हैं।
मैं अपने ही जीवन की घटना कहूं- मेरा संकल्प था कि मैं किसी को प्रेरित करके शिष्य नहीं बनाऊंगा। किसी की नियति में मेरा शिष्य होना लिखा है, तो उसके साथ स्वयं शिष्यत्व घटित होगा। किसी की चोटी खींचकर कोई दीक्षा होती है, तो उसका कोई अर्थ नहीं है। स्वयं उसी में शिष्यत्व घटित होना चाहिए। ऐसा ही संयोग बना। एक प्यासी आत्मा जिसके मन में यह प्रतिज्ञा थी कि मैं अपने जीवन में किसी को गुरु कहूंगा नहीं, किसी को गुरु मानूंगा नहीं; मेरे अन्तर्-हृदय में जो कुछ घटित कर देगा, वही मेरा गुरु होगा और ऐसी क्रान्ति घटित हुई। तब एक शिष्य पैदा हुआ, तब एक गुरु पैदा हुआ।
गुरु स्वयं शिष्य की तलाश करता है। यह समझने जैसी बात है कि गुरु स्वयं शिष्य की तलाश करता है। सही पात्र की तलाश करता है। ऐसे पात्र की, जिसमें वह अपने जीवन के रहस्यों को उंडेल सके; अपना ज्ञान, अपनी प्राणवत्ता, अपनी चैतन्यता जिसमें अवतरित कर सके। अनुयायी तो बहुत हो सकते हैं। शिष्य, सही अर्थ में शिष्य, जिस पर आत्म-विश्वास हो, आत्मज्ञान दिया जा सके, ऐसे कोई-कोई होते हैं।
सो परम महारस चाखै/५१
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