Book Title: So Param Maharas Chakhai
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 54
________________ गहरी है कि वह अपने अज्ञान से बाहर निकल नहीं पाता। क्रोध का ज्ञान होने के बावजूद व्यक्ति क्रोध से मुक्त नहीं हो पाता और प्रेम का ज्ञान होने के बावजूद व्यक्ति प्रेम का आचरण नहीं कर पाता। व्यक्ति जानता है कि वासना बुरी है लेकिन इस बात की समझ होते हुए भी वासना की मूर्छा इतनी गहरी है कि व्यक्ति वासना से बाहर नहीं निकल पाता है। जितनी गहरी मनुष्य के अन्तर-हृदय में वासना है, उतनी ही गहरी मुक्ति की कामना हो, तभी जीवन में मुक्ति की कोई क्रान्ति घटित हो सकती है। आदमी सोते-जागते हर समय वासना से ग्रस्त रहता है, जब उतनी ही तीव्रता, उतनी ही त्वरा, उतनी ही प्रखरता मुक्ति की होगी, तभी मनुष्य के भीतर का द्वारोद्घाटन होगा। हमारी मूर्छा गहरी है। सद्गुरु का काम है हमारी मूर्छा को तोड़ना। सदगुरु का काम है कि वे आँखें हमें कैसे मिल जाएं, जिनसे हम कीचड़ को कीचड़ समझ सकें और कमल को कमल । वह हंस-दृष्टि हमें कैसे उपलब्ध हो जाए, जिससे हम सत्य को सत्य और असत्य को असत्य, संसार को संसार और संन्यास को संन्यास, दूध को दूध और पानी को पानी, दोनों को अलग-अलग समझ सकें। सद्गुरु हमें हंस-दृष्टि देता है ताकि हम सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जान सकें। सद्गुरु मुक्ति की मंजिल तक ले जाने वाला मील का पत्थर है। सद्गुरु पारस है। सौंप देना स्वयं को सद्गुरु को, जीवन के पत्थर को घड़ने के लिए, पत्थर से मूरत घड़ने के लिए। पूरी तैयारी के साथ। हाथ तभी पकड़वाना जब अपनी ओर से ऐसी कोई तैयारी हो, अपने भावों में ऐसी कोई भूमिका हो कि मैं मुक्ति पाना चाहता हूँ। हमने उनका हाथ तो पकड़ लिया पर हाथ थामने के बाद वे हम पर रीझ गए तो हम सद्गुरु से मुक्ति नहीं मांग पाएंगे। तब हम चाहेंगे कि सद्गुरु! कुछ ऐसा करो कि जिससे मेरा व्यवसाय अच्छा चले। कुछ ऐसा इंतजाम करो कि मेरे बिगड़े काम पूरे हो जाएं। सोना-चांदी, मकान-जायदाद में बढ़ोतरी हो जाये । यह चूक है। हीरा ढूंढने निकले और कांच पाकर खुश हो गये। सद्गुरु का उपयोग तो स्वयं को पाने के लिए है, स्वयं से साक्षात्कार के लिए है। प्रज्ञा-नेत्र का उद्घाटन करने के लिए सद्गुरु है। बाहर की आंख तो सदा हमारे पास है पर उस आंख में जो किरकिरी गिरी है, जो जगत् गुरु मेरा/५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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