Book Title: So Param Maharas Chakhai
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 40
________________ चिराग के पास जाकर भी बुझे-बुझे वापस लौट जाओगे। बहती नदिया आई है, वह आगे निकल जाएगी। अंजुलि भर अमृत पी लो तो आपका सौभाग्य और न पियो तो इसमें नदी का कोई दुर्भाग्य नहीं है। आपका दुर्भाग्य जरूर होगा। उस नदिया में से घड़े भर-भर पानी निकाल भी लो, तो उसमें कमी नहीं आने वाली। कोई दीप जलता है उसके पास जाकर बुझे दीप उसका सान्निध्य पाएं, तो पहले जलने वाले दीप की रोशनी उससे कम नहीं होगी। हां! रोशनी, ज्यादा जरूर हो जाएगी। पहले एक दीप की रोशनी थी, फिर कई दीपों की रोशनी हुई। ज्योतिर्मय संघ का निर्माण इसी प्रकार होता है। दीयों को जलाकर ही दीये को खुशी होती है। दीप तो जलेगा और जल-जलकर एक दिन वह भी विराट-ज्योति में विलीन हो जाएगा पर कुछ और दीयों को वह जला दे, औरों की बाती उकसा दे, औरों को प्रकाश से भर दे, तो उस दीप की आत्मा आह्लादित होगी, उत्सवित होगी। दीप तो स्वयं तुषातर होता है। वह स्वयं चाहता है कि मैं बझं उससे पहले कुछ और माटी के दीए ज्योतिर्मय हो जाएं। आप सभी मेरे लिए दीये हैं। जगा दीया अपनी ओर आने के लिए निमन्त्रण दे रहा है। उसका अहर्निश जलना एक आह्ललाद है, ज्योति की तृषा जगाने के लिए। परमात्मा से प्रार्थना है कि उसने जो सृजन किया है, उसका समग्र मानवता के लिए उपयोग करे। जीना, महज खुद के लिए ही जीना न हो जाए, सबके लिए जीना हो। इसी में परितृप्ति है, मस्ती है। महावीर, बुद्ध यही करते थे; पहले शिष्य बनाते, उसे रोशनी की पहचान करवाते, पश्चात् उसे कह देते- अप्प दीवो भव -अपना दीप खुद बनो। मैंने तो केवल तुम्हें यह विश्वास दिया है कि माटी के दीये में रोशनी प्रकट हो सकती है। अपनी रोशनी को दिखा कर तुम्हारे भीतर यह आस्था पैदा कर दी है कि जब मेरा दीया रोशन हो सकता है, तो तुम्हारा क्यों नहीं हो सकता। जब मैं उन्मुक्त गगन में उड़ान भर सकता हूँ, तो तुम क्यों नहीं छलांग लगा सकते। इसीलिए कहा पागल प्राण बंधेगे कैसे, नभ की धुंधली दीवारों में। हम पंछी आकाश के/४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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