Book Title: So Param Maharas Chakhai
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ पागल प्राण बंधेगे कैसे, नभ की धुंधली दीवारों में। हम पंछी उन्मुक्त गगन के, हमें न बांधो प्राचीरों में। कोई व्यक्ति यह समझता है कि मुक्त गगन के रहवासी को सोने के पिंजरे में बांध ले, संत को माया का प्रलोभन देकर आबद्ध कर ले, तो वह अपने और संत दोनों के साथ अन्याय करता है। बाबा जैसे लोग तो किसी भी स्थिति में किसी से भी बंध कर नहीं रह सकते। वे तो आत्म-स्वतन्त्र हैं। स्वतन्त्रता ही उनकी आत्मा है। हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरबद्ध न गा पाएंगे। कनक-तीलियों से टकराकर, पुलकित पंख टूट जाएंगे। मुक्ति का आनंद उठाने वाले बंधकर कैसे जी पाएंगे? कोई चिड़ियों का संगीत सुनना चाहे, तो वह किसी उपवन में जाए। संगीत तो स्वतन्त्र होता है। स्वतन्त्रता के ही सुर होते हैं। परतन्त्र गीत नहीं गा सकता। वह आंसू ढुलका सकता है। विरह में रो सकता है। अपनी पांखों को खिरा सकता है। हम बहता जल पीने वाले, मर जाएंगे भूखे-प्यासे। कहीं भली है कटुक निंबौरी, कनक-कटोरी की मैदा से। नदिया का पानी पीने वाला गड्ढों के पानी में रस नहीं लेगा। संत तो बहता पानी है, खुद ही बहता पानी है। तुम सोचो, उसे बांधकर रख लें। वह बंध जाएगा अगर स्वर्ण-पिंजर की लोलुपता है तब तो, अन्यथा सम्भव नहीं है। वह तो ऐसा चातक है जो पियेगा, तो मेघ-जल ही पियेगा, नहीं तो तृषातुर ही मुक्ति के गीत गुनगुनाता रहेगा। सो परम महारस चाखै/३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128