Book Title: So Param Maharas Chakhai
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 36
________________ नीड़ न दो, चाहे टहनी का, आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो । लेकिन पंख दिये हैं तो, आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।। कारण से बंध जो स्वतन्त्रता का हामी है, सम्भव है, वह किसी भी जाये पर परमात्मा से उसकी एक ही गुजारिश रहती है - प्रभु ! पंख दिये हैं, तो उड़ान में बाधा क्यों ? नियति के चाहे जैसे क्रूर हाथ उस पर चलें पर उसकी एक ही तमन्ना रहती है - मुक्ति, मुक्ति, मुक्ति ! हम मुक्त हैं। हमें कृपया मुक्त रहने दो। ऐसा कोई प्रयास न हो, जो हमें पिंजरे में ले जाए। हम मुक्त हैं, हमारी मुक्ति को, हमारे स्वरों को, हमारी ही दृष्टि से समझो । बंधेंगे वे, जिन्हें बंधन प्रिय हैं। जिन्हें बंधन रास आते हैं, उनके लिए तो बंधन, बंधन नहीं वरन् शृंगार हैं । उन्हें बंधन में ही सुख है । पांवों में जंजीरों का ऐसा अभ्यास हो गया है कि उन्हें खोल दो, तो नींद नहीं आती। उनके द्वारा मुक्ति का, भव-मुक्ति का गीत गाना, मात्र रटे हुए शब्दों को दोहराना है । आदमी आत्म-स्वतन्त्रता के गीत तो बहुत गाता है मगर स्वतन्त्र होने का प्रयास नहीं करता । एक पक्षी सोने के पिंजरे में कैद था। वह अच्छा पढ़ाया हुआ था । और तोतों की तरह वह भी सुबह से आवाज करता मगर उसके बोल दूसरे तोतों से भिन्न थे। दूसरे तोते तो सुबह राम-राम की रट लगाते हैं और वह आजादी - आजादी की रट लगाता । तोता जिसके यहां बंधा हुआ था, उसके यहां कोई मेहमान आया । उसने सवेरे पक्षी को रोते - कलपते देखा । उसे बहुत करुणा आयी कि बेचारा ! आजाद होने के लिए तड़प रहा है। उसने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया मगर वह तोता उड़ने का नाम ही नहीं लेता । उसने तोते को हाथ से पकड़ कर बाहर निकाला और आसमान में उड़ा दिया । उसने सोचा आज उसने एक नेक काम किया । वह बड़ा आत्म-संतुष्ट था। नहाने-निपटने के लिए वह मेहमान चला गया मगर जब लौटा तो देखा कि वह पक्षी पिंजरे में बैठा है और अब भी वही गीत गा रहा हम पंछी आकाश के / ३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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