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व्यवस्थापन होना चाहिये। अपनी अन्तरात्मा की आवाज को महत्व दिया जाना चाहिये।
धर्म कोई भीड़ का मंच नहीं है। यह निजी उपलब्धि है, निजी नैतिकता है, निजी ईमानदारी है। बाबा कहते हैं, 'न साधु न साधक' मनुष्य की अन्तरात्मा साधु बन जाये, बस यही काफी है। गांधी के गुरुओं में एक थे-राजचन्द्र! जीवन भर वे गाते रहे कि ऐसा अपूर्व अवसर कब आएगा, जब मैं भीतर और बाहर दोनों पक्षों से निर्ग्रन्थ बनूं, बन्धन रहित बनूं, आत्म-निर्भर और आत्म-स्वतन्त्र बनूं। वे अन्त तक किसी के शिष्य न बन पाये। सब जगह बाहर के बन्धन छूटे हुए लगे पर भीतर के बन्धन, वासना, कषाय, तृष्णा, मोह तो वैसे ही बरकरार मिले। राजचन्द्र, श्रीमद् राजचन्द्र कहलाये; मुनिराजचन्द्र न बने पर जो उन्हें बनना था, वे लुंगी लपेटकर भी बन गये। न बनना होता, तो चीवर ओढ़कर भी कुछ नहीं बन पाते।
आत्म-मुक्ति के लिए वेश नहीं, जीवन्तता और जीवन-रूपान्तरण ही महत्वपूर्ण है।
'नहीं हम लघु नहीं भारी'। न मैं किसी से हल्का पड़ता हूँ और न ही भारी। मैं तो चेतना का समूह हूँ, प्रकाश का पुंज हूँ। न मैं कम हूँ न ज्यादा। जैसा हूँ, वैसा हूँ। ‘नहीं हम ताते, नहीं हम सीरे'। न मैं गर्म हूँ, न ठंडा। ‘नहीं दीर्घ, नहीं छोटा'। न किसी से बड़ा हूँ, न छोटा। छोटे-बड़े का भेद तो दुनिया की दृष्टि में है। जन्म के पहले-पीछे के कारण हैं। किसी का आकार बड़ा या छोटा हो सकता है। लम्बाई, चौड़ाई या मोटाई में फर्क हो सकता है पर एक बात तय है कि सभी चेतना के सातत्य हैं। हाँ, गुणों की दृष्टि से कोई बड़ा या छोटा हो सकता है, कम या ज्यादा हो सकता है।
बड़े न होजे गुणन बिनु, बिरुद बड़ाई पाय । कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़यो न जाय ।।
गुणों से ही कोई बड़ा होता है। आखिर गुणवान ही बड़ा माना जायेगा। कोई छोटा है पर गुणवान है, तो वह छोटा होकर भी बड़ा है, महान है।
सो परम महारस चाखै/२५
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