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बेचारे आचार्य की हालत खस्ता कर डाली। मैंने कहा-बेचारे! जानबूझकर अपने-आपको असहाय माना होगा। या तो ऐसी हिम्मत ही नहीं करते और जब कर ही ली, तो माफी किस बात की मांगी? हरिजनों के, अनुसूचित जाति के मुहल्ले में गये, प्रवचन दिया, भोजन-पानी भी ले लिया होगा, अच्छा किया, मानवता के मसीहा बन जाते। लाखों हरिजनों को, आदिवासियों को जैन बना सकते थे पर जैनों को जात-पांत का खतरा! कहीं ऐसा हो गया तो हमारे घर, फिर हमारे कहां रहेंगे? फिर हमारी जाति का गर्व कहाँ रहेगा? जैनाचार्य माफी न मांगते, तो इक्कीसवीं सदी के अंबेडकर होते पर नहीं, वे चेतना के हामी नहीं हैं। मात्र सिद्धान्तों के रसिया हैं। सच में, जैनाचार्य ने एक समझदारी का काम किया पर अपने वक्तव्य को गुनाह के रूप में स्वीकार कर उन्होंने सारी समझदारी पर पानी फेर दिया।
उन्होंने महावीर के मल सिद्धांतों को सही रूप में जाना कि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र नहीं लेकिन इन सिद्धांतों पर अमल नहीं कर पाए। अगर इस समाज के सिद्धांतों पर चलते, तो महावीर को भी इसी तरह माफी मांगनी पड़ती क्योंकि महावीर के शिष्यों में चोर भी आए, डाकू भी आए और चांडाल भी आए। क्यों भूलते हो कि जिस उत्तराध्ययन सूत्र में हरिकेशबल की इतनी महिमा गाई जाती है, वह हरिकेशबल और कोई नहीं श्मशान में मुर्दो को जलाने वाले चांडाल का बेटा था। रोहिणिया अपने जमाने का मशहूर चोर था, अंगुलीमाल रक्तपिपासु डाकू था, अर्जुन घनघोर हत्यारा था। महावीर के लिए न जाति है, न पांति है। न वर्ण है, न भेद है। महावीर के लिए आत्मा का मूल्य है। हर वर्ण, हर रूप के पार जो तत्त्व है, बाबा आनंदघन कहते हैं-मैं वह हूँ, 'सोहं'।
___न साधु, न साधक-मैं न तो साधु हूँ, न साधक हूँ। तुम्हें जो कहना अच्छा लगे, कह लो। गृहस्थ कहना अच्छा लगे तो गृहस्थ कह लो। साधु कहो, तुम्हारी मौज, भन्ते कहो, तुम्हारी दृष्टि। अवधूत या अध्यात्मनिष्ठ आदमी तो संसार से ही नहीं बल्कि संन्यास के राग से भी ऊपर उठ जाता है। उसमें न तो संसार का भाव होता है और न संन्यास का। वह न तो साधु कहलाने में रस लेता है, न साधक कहलाने में। वह साधु और संसारी इन दोनों से हटकर कुछ और होता
सो परम महारस चाखै/२३
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