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किसी वक्त साधुता का अर्थ स्वतन्त्रता होता था पर अब साधु जीवन भी बन्धन रूप है। जमाना बदल रहा है पर हम अभी भी साधु में बुद्ध का चरित्र, महावीर का चरित्र देखना चाहते हैं। साधु की स्वच्छन्दता पर रोक होनी ठीक है पर स्वतन्त्रता पर अंकुश डालना, गेरुए वस्त्रों, सफेद वस्त्रों या काषाय चीवर से उसे बांधना है। गुरु शिष्य बनाता है। वैराग्य से नहीं, प्रेरणा देकर। शास्त्रों का नाम लेकर अच्छी-अच्छी बातों से फुसला लेता है। शिष्य चाहिये। दो-चार शिष्य साथ हों, तो थोड़ा रुतबा बने। साधुता या साधुवेश दुकान नहीं है। यह जीवन की महान उपलब्धि है, जीवन का महान रूपान्तरण है। माटी में ज्योत जगाना है।
शिष्य भले हों कम, पर शिष्यों में हो दम।।
मुझे साधुता से प्रेम है। मैं साधुता का सम्मान करता हूँ पर साधुता के नाम पर शिष्यों का जो व्यापार होता है, बगैर आत्मजागरूकता या अन्तर-रूपान्तरण के जो वेश भर बदलकर साधु बना दिया जाता है, वह गलत है, साधु बनाए जाएं, खुद साधु बनकर ।
साधु तो अपरिग्रही कहलाता है। कभी देखा आपने अपरिग्रह को? साधता के नाम पर कितना परिग्रह है? सब गादोलिया महाराज हो गये हैं। कहेंगे वाहन यात्रा नहीं करेंगे पर ठेलागाड़ी पर चढ़कर बड़े आराम से विहार करेंगे। पशुगाड़ी पर बैठना पाप कहेंगे पर डोली पर खुद बैठेंगे। जैसे पशुगाड़ी को पशु चलाते हैं, वैसे ही डोली को मजदूर अपने कंधे पर रखकर चलते हैं। रात का अंधेरा होने पर लाइट नहीं जलाएंगे पर लालटेन का उपयोग कर लेंगे। सवेरे चार बजे के धुप्प अंधकार में चलेंगे। रबर की चप्पल या कपड़े के जूते पहनने से परहेज रखेंगे पर साधु-साध्वियों के लिए नई स्टाइल के बनाये मोजे (चप्पलजूतों की स्टाइल के) सभी व्यवहार में लेंगे।
कोई यह सब करना चाहे, मुझे कोई ऐतराज नहीं है। मैं तो चाहता भी हूँ कि कुछ युगानुरूप परिवर्तन होना ही चाहिये। मानवता की भलाई के काम में अपनी सक्रियता रखनी ही चाहिये पर इतना ध्यान रखें कि साधुता आत्मा का उत्थान है, यह कोई दुकानदारी नहीं है। बाहर के जीवन और भीतर के जीवन में दुराव नहीं होना चाहिये। सच को स्वीकारना ही चाहिये। सच के अनुरूप जीवन का निर्माण और
सो परम महारस चाखै/२४
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