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एक अध्यापक ने अपने छात्रों से पूछा कि अक्ल और भैंस दोनों ही तुम्हारे सामने हों, तो तुम दोनों में से किसको लेना पसंद करोगे। सबने कहा-अक्ल; मगर एक छात्र ने कहा-भैंस। अध्यापक ने खीजकर डांटते हुए कहा, मुझे पहले ही पता था, बेवकूफ! तू भैंस ही मांगेगा। अरे, तेरी जगह कोई गधा भी होता, तो वह भी अक्ल ही मांगता।
__छात्र ने कहा-माफ करें सर! जिसके पास जिसकी कमी होगी वह वही तो चाहेगा।
बाबा आनंदघन स्वयं चैतन्य-मूर्ति हैं, इसलिए कहते हैं, 'नहीं हम भाई, नहीं हम भगिनी, नहीं हम बाप न बेटा'। कौन भाई-बहिन और कौन बाप-बेटा। भाई-बहिन के चक्कर में ही तो भाई-भतीजावाद चला करता है। सास-ननद की हम-जोली जमा करती है। शादी न हुई तब तक बेटा, बेटा है। शादी हो जाये तो बेटा भी बाप है। बाप बनते देर भी कितनी लगती है?
"नहीं हम भाई, नहीं हम भगिनी, नहीं हम बाप न बेटा, ये सब सांयोगिक हैं, नदी नाव के संयोग की तरह। जन्म तो होना ही है, माँ-बाप उस जन्म में मात्र निमित्त बनते हैं। पुत्र-पुत्री तब तक अपने हैं, जब तक पंखेरु के पंख न लगें। अब जो है ही मात्र संयोग भर उसके लिए फिर कैसा तादात्म्य? कैसा राग? कौन दुश्मन, कौन दोस्त? सच तो यह है कि दुश्मन भी दोस्त बन जाया करते हैं और जिन्हें हम दोस्त कहते हैं, उन्हें दुश्मन बनते कितनी देर लगती है। कोई छोटी-सी बात पिन कर गयी और दोस्त दुश्मन बन बैठा। मैंने अपनों को गैर बनते देखा है और गैरों को खून से भी ज्यादा रिश्ता निभाते पाया है। किसी से हमारी मैत्री हो न हो पर एक बात तय है कि किसी से दुश्मनी कदापि नहीं होना चाहिये।
नहीं हम मनसा, नहीं हम सबदा, नहीं हम तन की धरणी। नहीं हम भेख, भेखधर नाहीं, नहीं हम करता करणी।।
हम न तो तन हैं और न ही तन को धारण करने वाले। हम न शब्द हैं, न मन हैं। शब्द और मन शरीर की ही सूक्ष्म संहिताएं हैं। शरीर है तो शब्द है। शरीर है तो मन है। जो स्वयं को शरीर से
सो परम महारस चाखै/२६
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