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नहीं हम भेख, भेखधर नाहीं, नहीं हम करता करणी।। नहीं हम दरसन, नहीं हम परसन, रस न गंध कछु नाहीं। आनंदघन चेतनमय मूरति, सेवक-जन बलि जाहीं।।
बाबा आनंदघन सारे लोगों से आह्वान करते हैं कि तुम मेरा कोई नाम रखो। गुमनाम का नाम । बाबा ने जान लिया है कि ये सारे नाम, नाम नहीं हैं। तुम मुझे किस रूप अथवा किस तरीके से देखोगे? हर रूप आरोपित है। हर रूप एक अभिनय है। नाम का व्यामोह है, इसलिए आदमी जिंदगी भर एक नामधारी बनकर रह जाता है। नाम के पार जो तत्त्व है, उस तक उसकी कोई पहुंच नहीं होती।
किसी का नाम रख दो गुलाबचंद, वह जिंदगी भर गुलाबचंद बनकर रह जाएगा। गुलाब बनकर महकेगा नहीं, गुलाबचन्द बनकर जिएगा। न जाने कितने लोग एक ही नाम के होंगे। नाम तो सारे स्थापित हैं, आरोपित हैं। आदमी जान ले कि नाम तो आरोपित हैं, तो उसकी आधी समस्याएँ ऐसे ही हल हो जाएं। तब कोई नाम से गाली निकालेगा, तो वह कहेगा कि मेरा यह नाम तो पंडित ने दिया है, मेरा नाम थोड़े ही है। यह तो पुकारू नाम है।
___ आप ज्ञानचंद हैं और किसी ने पास से गुजरते हुए कह दिया'मिलापचंद! तुम बहुत बुरे हो।' तो तुम पर कोई असर नहीं होगा क्योंकि तुम तो ज्ञानचंद हो। गाली तो गाली है, चाहे गुलाबचंद को दो या मिलापचंद को। अगर नाम के साथ तादात्म्य है तो गाली, गाली है, वरना तो वह गाली ही नहीं है। आदमी यह सोच ले कि यह नाम बस व्यवहारवश है, माता-पिता या पंडित ने दिया है, यह तो केवल संबोधन के लिए है, तो बस इतनी समझ ही काफी है। ज्ञानचंद को गाली दो और वह नाराज हो जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन उसके भीतर जो तत्त्व बैठा हुआ है, वह नाराज नहीं होना चाहिए।
शिवप्रसाद या अल्लाहबख्श में से किसी एक को गाली दें. तो फर्क एक पर पड़ेगा लेकिन नामों का अर्थ देखें, तो दोनों का एक ही अर्थ है। तादात्म्य के कारण अल्लाहबख्श मुसलमान और शिवप्रसाद हिंदू है। नाम तो सारे आरोपित हैं। आप ही हैं-मुझे आपको याद रखना होगा तो याद रख लूंगा पर नाम के कारण नहीं। नाम की मूर्छा
सो परम महारस चाखै/१७
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