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और पुरुष, पुरुष होते हुए भी स्त्रीत्व लिए हुए है। कोई भी स्त्री न तो पूरी तरह से स्त्री है, न कोई भी पुरुष पूरी तरह से पुरुष है। हर कोई अर्ध-नारीश्वर है ।
बहुत पहले ही यह विज्ञान मनुष्य की समझ में आ गया था कि शिव के शरीर में पार्वती भी है। पार्वती के शरीर में शिव भी है । आधा शरीर शिव रूप, आधा शरीर पार्वती रूप । इसलिए पुरुष, स्त्री के प्रति आकर्षित होता है या स्त्री, पुरुष के प्रति आकर्षित होती है। एक-दूसरे में रहे विरोधी तत्त्व आकर्षित होते हैं । इसमें कहीं कोई दुविधा या पागलपन नहीं है । यह शरीर का सहज स्वाभाविक गुण-धर्म है।
साधक को देह-भाव से ऊपर उठना होता है । देह-भाव से ऊपर उठने का मतलब ही है कि स्त्रैण और पुरुषधर्मी प्रकृति से ऊपर उठो । आनंदघन देह-भाव से ऊपर उठे, इसीलिए कहा कि न हम पुरुष हैं, न हम नारी हैं। हम तो स्त्री और पुरुष दोनों के पार हैं। ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य को साधना नहीं पड़ता, ब्रह्मचर्य तो सहज परिणाम हो जाता है । स्त्री हो या पुरुष, सबके प्रति समान दृष्टि, समान आत्मीयता, समान प्रेम ।
कुछ प्राचीन धार्मिक परम्पराएं कहती हैं कि मुक्ति के लिए पुरुष का शरीर अनिवार्य है। स्त्री मुक्त नहीं हो सकती । यह पुरुषत्व की महत्ता बढ़ाने के लिए पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए गाई गई मात्र आत्म- महिमा है । अपने ही मुंह से अपनी प्रशंसा है। मुक्ति न तो स्त्री की होती है, न पुरुष की । मुक्ति आत्मा का अधिकार है। आत्मा मुक्त होती है। काया की तो मृत्यु होती है, मुक्ति तो आत्मा की होगी । काया पुरुष की हो या स्त्री की, माटी की संरचना मात्र है ।
देह-भाव से ऊपर उठकर देखो, तो न तो स्त्री से परहेज होगा और न ही पुरुष से गिला पर यह मार्ग विशिष्ट लोगों के लिए है । आम आदमी फिसल सकता है । देह से विदेह की यात्रा काई से सनी है । पांव फिसला कि गये गड्ढे में । देह के गुण, देह के हारमोन्स कभी भी, किसी भी क्षण मनुष्य पर हावी हो सकते हैं। आर्द्रकुमार पूर्वजन्म के दृश्यों को देखने के बावजूद फिसल गया । वैराग्य भी फिसल जाता है । चैतन्य-भाव जब तक अन्तर- हृदय में प्रतिष्ठित न हो जाये, तब तक
सो परम महारस चाखै/२०
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