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मेरा गच्छ, यह मेरा शास्त्र, ये मेरे गुरु, ये मेरे सिद्धान्त, ये मेरी मान्यताएं-कहीं कोई फर्क नहीं ! तादात्म्य दोनों में बना हुआ है। यह मेरी पत्नी, यह मेरा गच्छ - इसमें और उसमें कोई फर्क नहीं। यह मेरा मकान, यह तेरा, दोनों एक ही बात हुई, सम्बोधन बदल गये। पकड़ वही है ।
संसार के तादात्म्य को तोड़ना सरल बात है मगर धर्मों, सिद्धान्तों, शास्त्रों व पुस्तकों के प्रति रहने वाली तादात्म्यमूलक प्रवृत्तियों से उबरना कठिन होता है। किसी को समझाओ, तो समझ नहीं आती क्योंकि तादात्म्य तो वही का वही है। जिन खूंटों और रस्सियों से बैल को बांधते हैं, वे बदल जाती हैं। ठाण और स्थान बदल जाता है पर आदमी तो वही का वही है । इसलिए एक ही सूत्र है - तादात्म्य को पहचानो और तादात्म्य के पार लग जाओ ।
तादात्म्य से उबरने के बाद पत्नी, पत्नी होते हुए भी पत्नी नहीं रहेगी; मां, मां होते हुए भी मां नहीं रहेगी। जिसके कारण पति, पति है, वह भाव, वह संबंध, वह तादात्म्य टूट जाने पर पति, एक कर्त्तव्य भर रह जाएगा, इससे आगे कुछ नहीं । भीतर से जो जोड़ने वाला तत्त्व था, वह टूट गया, तादात्म्य ढीला पड़ गया । कीचड़, कीचड़ रहा मगर कीचड़ में रहकर भी कमल अपने आपको निवृत्त कर चुका ।
तादात्म्य है तो बाबा आनंदघन का यह पद केवल कवि की रचना भर होगा। किसी गड़रिये द्वारा नींद में बड़बड़ाए कोई बोल होंगे। यह पद तभी अध्यात्म का अमृत पद बनेगा, जब व्यक्ति नाम, रूप, रंग, वर्ण सभी तरह के तादात्म्य तोड़कर अपने आपको निहारने का प्रयास करेगा ।
बाबा का पद है
अवधू नाम हमारा राखै, सो परम - महारस चाखै ।
नहीं हम पुरुषा, नहीं हम नारी, बरन न भांति हमारी ।
जाति न पांति, न साधु न साधक, नहीं हम लघु नहीं भारी । । नहीं हम ताते, नहीं हम सीरे, नहीं दीर्घ नहीं छोटा ।
नहीं हम भाई, नहीं हम भगिनी, नहीं हम बाप न बेटा । । नहीं हम मनसा, नहीं हम सबदा, नहीं हम तन की धरणी ।
सो परम महारस चाखै / १६
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