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याज्ञवल्क्य स्मृति
५७-६१
६२-६४
ब्राह्म, आर्ष देव, धर्म, राक्षस, पैशाच, आसुर और गान्धर्व आठ
प्रकार के विवाहों का वर्णन । कन्या के देने वाले पिता पितामह भ्राता और माता न हो तो कन्या का स्वयंवर करने का अधिकार है । जो मनुष्य कन्या के दोषों को छिपाकर विवाह
करे उसको दंड का विधान कन्या देने का जिनको अधिकार है ऋतुकाल के पहले यदि कन्या
को न दे तो माता पिता को भ्रूणहत्या का पाप बिना दोष के कन्या के त्यागने में दंड और पति को छोड़कर
अपनी कामना के लिए दूसरे के पास जाती है उसे पुंश्चली कहते हैं । क्षेत्रज पुत्र किस विधि से उत्पन्न कराया जाता है
इसका वर्णन व्यभिचार करने वाली स्त्री को दंड का विधान स्त्री को चन्द्रमा गन्धर्वादिकों ने पवित्र बताया है पति और पत्मी का परस्पर व्यवहार और जिन आचरणों से स्त्री
की कीर्ति होती है उनका वर्णन ऋतुकाल के अनन्तर पुत्रोत्पत्ति का समय और पुरुष को अपने
चरित्र की रक्षा एवं स्त्रियों का सम्मान करने का धर्म स्त्री को सास श्वसुर का अभिवादन तथा पति के परदेश गमन पर
रहन सहन के नियम स्त्री की रक्षा कुमारी काल में पिता, विवाह होने पर पति और - वृद्धावस्था में पुत्र करे स्वतन्त्र न छोड़ दे स्त्री को पति प्रिय रहने का माहात्म्य और सवर्णा स्त्री के होने पर
उसके साथ ही धर्मकाम करने का निर्देश किया गया है । सवर्णा स्त्री से जो पुत्र उत्पन्न होता है उसी को पुत्र कहते हैं
__ वर्णजातिविवेकवर्णनम् :१२४३ ।। अनुलोम और प्रतिलोम जो सन्तान होती है उनकी संज्ञा
गृहस्थधर्मप्रकरण वर्णनम् : १२४४ स्नान, तर्पण, सन्ध्या, अतिथि सत्कार का वर्णन
७२-७८
७६-८२
८३-८४
८६-६०
६१-६६
६७-१०७
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