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वाधूलस्मृति प्रातः सन्ध्या तारागण के प्रकाश से लेकर सूर्योदय तक है । अतः
तारागण के रहते प्रात: सन्ध्या करे सायंकाल में आधे सूर्य के अस्त होने के समय सन्ध्या करे शौचादि विधि
८-२० आचमन प्रकार
२२-३० स्नानविधि २६२७ निषिद्ध तिथियों में दन्तधावन नहीं करना चाहिए। पतित मनुष्य
की छाया पड़ने से स्नान करना चाहिए अस्पृश्य के छ जाने से १३ बार जल में नहाने से शुद्धि हो । रजस्वला स्त्री को यदि ज्वर चढ़ जाए तो वह कैसे णुद्ध हो
३१-४८ भूमि पर गिरा हुआ जल गंगा के समान पवित्र है। चन्द्र और
सूर्य ग्रहण के समय कुंआ, वापी, तड़ाग के जल शुद्ध हैं । जलाञ्जलि विधि
४६-५६ पूर्व की ओर मुख करके देवतागण को, उत्तराभिमुख होकर
ऋषियों को और दक्षिण को ओर मुंह करके जल में पितरों को तर्पण करे । स्नान के लिए जाते हुए मनुष्य के पीछे पितरों के साथ देवगण प्यास से ब्याकुल जल के लिए लालायित हो कर जाते हैं अतः देवर्षिपितृतर्पण किए बिना वस्त्र को न निचोड़े यदि वस्त्र निचोड़ा जाता है तो वे निराश होकर चले जाते हैं । सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिए नदी, तालाब
पहाड़ी झरनों में प्रतिदिन स्नान करे दूसरे के बनाए हुए सरोवर में स्नान करने से उस बनाने वाले के
दुष्कृत (पाप) स्नानार्थी को लगते हैं अतः उसमें न नहावे सूर्योदय के पूर्व प्रातःकाल का स्नान प्राजापत्य यज्ञ के समान
है और आलस्यादि को नष्ट कर मनुष्य को उन्नत विचार और कार्यशील बना देता है ।
६५-६८ स्नान मलाः क्रियाः सर्वाः सन्ध्योपासनमेव च ।
स्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्यः निष्फलाः क्रिया: ।। ६७ ॥ सम्पूर्ण क्रियायें स्नान के अन्तर्गत ही हैं। रविवार को उषा काल
में स्नान करने से हजार माघ स्नान का फल और जन्म दिन
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